बुधवार, 3 नवंबर 2010

बाबा नागार्जुन की पुण्यतिथि पर विशेष

पांच नवम्बर १९९८ की रात दरभंगा रेडियो से यह सूचना मिली थी कि बाबा नागार्जुन नहीं रहे. तरौनी में उनका अंतिम संस्कार होगा. अब तक कई कवियों के दिवंगत होने की सूचना रेडियो व टीवी से मिली थी लेकिन बाबा ऐसे पहले कवि थे जिनके गुजरने की खबर की चर्चा पूरे गाँव में हो रही थी. अभी कुछ दिन पहले कलम ही पकड़ा था और एक-दो कार्यक्रमों में उनसे भेंट भी हो चुकी थी. ऐसे में उनका अंतिम दर्शन नहीं करने का सवाल ही कहाँ पैदा होता था. मेरे गाँव से तरौनी की दूरी काफी नहीं थी, सो सुबह होते ही तरौनी के लिए निकल पड़ा था. सकरी स्टेशन से तरौनी जाने वाली सड़क पर काफी भीड़ लगी थी. भीड़ देखने से लगता था मानों किसी नेता का आगमन होने वाला हो. पूछने पर पता चला कि ये लोग किसी नेता का नहीं, बल्कि बाबा नागार्जुन का अंतिम दर्शन करने के लिए खड़े थे. किसी कवि का अंतिम दर्शन करने के लिए लोगों की इतनी भीड़ न पहले कभी देखी थी और न ही ऐसा कभी सुना था. यह बाबा का लोक प्रेम ही था कि उनका अंतिम दर्शन करने के लिए उन लोगों का हुजूम भी उमड़ पड़ा था, जिनका साहित्य से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था.
मेरे पास इतने ही पैसे थे कि मैं सकरी से पैटघाट तक बस से जा सकूं. सो, सकरी से तरौनी तक की लगभग चार किमी की यात्रा पैदल ही तय करनी थी. इसका सबसे बड़ा फायदा मुझे यह मिला कि रास्ते में लोगों को बाबा के बारे में बोलते-बतियाते सुना. हैरत की बात यह थी कि बाबा के बारे में वे भी चर्चा कर रहे थे जो निरक्षर थे. सब उस आदमी के अंतिम दर्शन के लिए आतुर थे, जो उनके बीच का था, जो उनके समाज का था. और लगता था कि यहीं कहीं है बाबा का बलचनमा, रतिनाथ की चाची, वरुण के बेटे का वह हर किरदार जो अदम्य जिजीविषा लिए हुए है. मैं आगे-आगे चल रहा था और पीछे एक ट्रक पर आ रहा था बाबा का पार्थिव शरीर. लेकिन मेरी आखों के सामने बाबा जीवित थे. बाबा जीवित थे उन लोगों में, जिनमे बलचनमा व रतिनाथ की चाची जीवित थे. बाबा उन लोगों में जीवित थे जो उनका अंतिम दर्शन करने के लिए व्यग्र थे. बाबा की पुण्यतिथि पांच नवम्बर को है. इस अवसर पर यहाँ पेश है बाबा की वो कविताएं जो समाज को झकझोरती है. उसका अच्छा-बुरा सामने लाती है.
                                                                                                                 -सच्चिदानंद
अग्निबीज
तुमने बोए थे
रमे जूझते,
युग के बहु आयामी
सपनों में, प्रिय
खोए थे !
अग्निबीज
तुमने बोए थे

तब के वे साथी
क्या से क्या हो गए
कर दिया क्या से क्या तो,
देख–देख
प्रतिरूपी छवियाँ
पहले खीझे
फिर रोए थे
अग्निबीज
तुमने बोए थे
ऋषि की दृष्टि
मिली थी सचमुच
भारतीय आत्मा थे तुम तो
लाभ–लोभ की हीन भावना
पास न फटकी
अपनों की यह ओछी नीयत
प्रतिपल ही
काँटों–सी खटकी
स्वेच्छावश तुम
शरशैया पर लेट गए थे
लेकिन उन पतले होठों पर
मुस्कानों की आभा भी तो
कभी–कभी खेला करती थी !
यही फूल की अभिलाषा थी
निश्चय¸ तुम तो
इस 'जन–युग' के
बोधिसत्व थे;
पारमिता में त्याग तत्व थे।
विज्ञापन सुंदरी
रमा लो मांग में सिन्दूरी छलना...
फिर बेटी विज्ञापन लेने निकलना...
तुम्हारी चाची को यह गुर कहाँ था मालूम!

हाथ न हुए पीले
विधि विहित पत्नी किसी की हो न सकीं
चौरंगी के पीछे वो जो होटल है
और उस होटल का
वो जो मुच्छड़ रौबीला बैरा है
ले गया सपने में बार-बार यादवपुर
कैरियर पे लाद के कि आख़िर शादी तो होगी ही
नहीं? मैं झूठ कहता हूँ?
ओ, हे युग नन्दिनी विज्ञापन सुन्दरी,
गलाती है तुम्हारी मुस्कान की मृदु मद्धिम आँच
धन-कुलिश हिय-हम कुबेर के छौनों को
क्या ख़ूब!
क्या ख़ूब
कर लाई सिक्योर विज्ञापन के आर्डर!
क्या कहा?
डेढ़ हज़ार?
अजी, वाह, सत्रह सौ!
सत्रह सौ के विज्ञापन?
आओ, बेटी, आ जाओ, पास बैठो
तफसील में बताओ...
कहाँ-कहाँ जाना पड़ा? कै-कै बार?
क्लाइव रोड?
डलहौजी?
चौरंगी?
ब्रेबोर्न रोड?
बर्बाद हुए तीन रोज़ : पाँच शामें ?
कोई बात नहीं...
कोई बात नहीं...
आओ, आओ, तफ़सील में बतलाओ!
फसल
एक के नहीं,
दो के नहीं,
ढेर सारी नदियों के पानी का जादू:
एक के नहीं,
दो के नहीं,
लाख-लाख कोटि-कोटि हाथों के स्पर्श की गरिमा:
एक के नहीं,
दो के नहीं,
हज़ार-हज़ार खेतों की मिट्टी का गुण धर्म:
फसल क्‍या है?
और तो कुछ नहीं है वह
नदियों के पानी का जादू है वह
हाथों के स्पर्श की महिमा है
भूरी-काली-संदली मिट्टी का गुण धर्म है
रूपांतर है सूरज की किरणों का
सिमटा हुआ संकोच है हवा की थिरकन का!

गुलाबी चूड़ियाँ
प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,
सात साल की बच्ची का पिता तो है!
सामने गियर से उपर
हुक से लटका रक्खी हैं
\काँच की चार चूड़ियाँ गुलाबी
बस की रफ़्तार के मुताबिक
हिलती रहती हैं…
झुककर मैंने पूछ लिया
खा गया मानो झटका
अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा
आहिस्ते से बोला: हाँ सा’ब
लाख कहता हूँ नहीं मानती मुनिया
टाँगे हुए है कई दिनों से
अपनी अमानत
यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने
मैं भी सोचता हूँ
क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ
किस ज़ुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?
और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा
और मैंने एक नज़र उसे देखा
छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में
तरलता हावी थी सीधे-साधे प्रश्न पर
और अब वे निगाहें फिर से हो गईं सड़क की ओर
और मैंने झुककर कहा -
हाँ भाई, मैं भी पिता हूँ
वो तो बस यूँ ही पूछ लिया आपसे
वर्ना किसे नहीं भाएँगी?
नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियाँ!
अन्न पचीसी के दोहे
सीधे-सादे शब्द हैं, भाव बडे ही गूढ़

अन्न-पचीसी घोख ले, अर्थ जान ले मूढ़

कबिरा खड़ा बाज़ार में, लिया लुकाठी हाथ
बन्दा क्या घबरायेगा, जनता देगी साथ

छीन सके तो छीन ले, लूट सके तो लूट
मिल सकती कैसे भला, अन्नचोर को छूट

आज गहन है भूख का, धुंधला है आकाश
कल अपनी सरकार का होगा पर्दाफ़ाश

नागार्जुन-मुख से कढे साखी के ये बोल
साथी को समझाइये रचना है अनमोल

अन्न-पचीसी मुख्तसर, लग करोड़-करोड़
सचमुच ही लग जाएगी आँख कान में होड़

अन्न्ब्रह्म ही ब्रह्म है बाकी ब्रहम पिशाच
औघड मैथिल नागजी अर्जुन यही उवाच

7 टिप्‍पणियां:

  1. आपको भारत के महापर्व दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं।
    श्रद्धांजलि बाबा को!!

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  2. उम्दा आलेख.दीपावली अभिनंदन!

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  3. बहुत अच्छी पोस्ट,

    दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ|

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  4. दीपावली का त्यौहार आप, सभी मित्र जनो को परिवार को एवम् मित्रो को सुख,खुशी,सफलता एवम स्वस्थता का योग प्रदान करे -
    इसी शुभकामनओ के साथ हार्दिक बधाई।

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  5. लेखन अपने आपमें रचनाधर्मिता का परिचायक है. लिखना जारी रखें, बेशक कोई समर्थन करे या नहीं!
    बिना आलोचना के भी लिखने का मजा नहीं!

    यदि समय हो तो आप निम्न ब्लॉग पर लीक से हटकर एक लेख
    "आपने पुलिस के लिए क्या किया है?"
    पढ़ सकते है.

    http://baasvoice.blogspot.com/
    Thanks.

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