रविवार, 25 अक्तूबर 2015

हवा किधर? ओनै आर केनै ....

कुमार राहुल, सुल्तानगंज से लौटकर
....................................................
हमारे आगे-आगे सड़क पर एक फटे सर्ट वाले साइकिल चालक के सर्ट के पीछे एक पार्टी का स्टीकर सटा है. उसमें कई वादे लिखे हुए हैं. ठीक उसके सामने से एक रिक्शा आगे बढ़ता है. उस पर पीछे में पेंट से लिखा है- फतेहपुर-2 ...हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है... 

...........................................................
कहते हैं महाकवि विद्यापति अपने अंतिम समय में गंगा के तट पर पहुंच गये और मां गंगा से विनती की- हे मां! जग का कल्याण करो. मुझे मुक्ति दो. बड़ सुख सार पाओल तुअ तीरे, छोड़इत निकट नयन बहु नीरे... सुल्तानगंज की गंगा बोलती है, आपसे बतियाती है. वह उफान पर होती है, तो आपसे बात करती है. वैसे ही यहां की जनता बोलती नहीं, सुन रही है. चुनाव प्रचार अपने उफान पर है. सभी जोर लगा रहे हैं. किसको, किस ओर फिट करें, किस तिकड़म से किसको पटखनी दें. दूसरी तरफ आम जनता है, जो सबको देख रही है, सबका भोंपू झेल रही है, लेकिन चुपचाप. कोई जवाब नहीं देती. गंगा भी तो जवाब नहीं देती? वह तो केवल पाप धोती है. इस मौसम में थोड़ा वैराग्य भाव आ जाना आम जनता के लिए कोई नयी बात नहीं है. यह वही वैराग्य भाव है, जो महाकवि मैथिल कोकिल विद्यापति के हृदय से निकला था- छोड़इत निकट नयन बहु नीरे... उस जनता से बात करें, जो गंगा से बतियाती है, उनकी लहरों से आलोडि़त होती है. गंगा स्थानीय मुद्दा भले ही अन्य जगहों के लिए न हो लेकिन सुल्तानगंज के लिए है. यह गंगा वहां के लोगों को रोटी देती है, पहचान देती है. 
हम भागलपुर से सुल्तानगंज की ओर जा रहे हैं. नाथनगर के बाद धूप में तेजी आती है. नाथनगर चौक पर ही बीच सड़क पर जलजमाव है. सूखे के इस मौसम में सड़क पर पानी ठहरना, वह भी किसी ग्रामीण क्षेत्र के बाजार में, थोड़ा अचरज होता है.  रास्ते में ज्यादातर जुगाड़ गाड़ी ही दिखती है. किसी पर सीमेंट, तो किसी पर खाद्य पदार्थ. लगता है अपना यह प्यारा लोकतंत्र का महापर्व भी किसी जुगाड़ गाड़ी की तरह होता जा रहा है! 
पार्टी नहीं, व्यक्ति पर वोट
बाजार में एक व्यवसायी मिलते हैं. उनका आग्रह होता है कि मेरे एक निकट साथी खड़े हैं. वैसे मैं दूसरी पार्टी का कैडर हूं. मेरा नाम नहीं लिखिये. वैसे आपको बता दूं कि मेरे जैसे कई लोग हैं, जो इस बार पार्टी के बदले व्यक्ति पर वोट देंगे. वे जातीय समीकरण भी बताने लगे, लेकिन उनका मत था कि जाति के बदले व्यक्ति पर ही इस बार वोट पड़ेगा. उनका तर्क था कि कुछ निर्दल उम्मीदवार भी सेंध लगा रहे हैं. ज्यों-ज्यों चुनाव नजदीक आता जा रहा है, त्यों-त्यों इनमें से कुछ चेहरे, तो काफी चमकदार होते जा रहे हैं. 
शहर से लगभग 10 किमी दूर के गांव पूरी तरह से चुनावी माहौल में रंग चुके हैं. कई जगह भोंपू बजते दिखे. कई लोगों के सर्ट पर पार्टी का झंडा या श्लोगन, घर के दरवाजे पर स्टीकर देखने को मिले. लोग तास के पत्तों के बीच चुनावी बातें कर रहे थे. फतेहपुर गांव में एक प्रत्याशी को वहां के कुछ लोगों ने घेर लिया था. वे इसे विरोधी की साजिश मान रहे थे. ग्रामीण उनसे नाला बनवाने की मांग पर अड़े हुए थे. इसके साथ ही ग्रामीण प्रतिभाओं के लिए स्टेडियम की भी मांग कर रहे थे. कुछ लोग तो जिला, अनुमंडल आदि मांग भी जोर-शोर से कर रहे थे. पर पता नहीं नेताजी के कान में केवल विरोधी की साजिश ही सुनाई पड़ रही थी. उनका कहना था कि चुनाव में ऐसी बातें विरोधी ही फैलाते हैं. एक कोई ब्रह्मदेव थे. उन्हें कुछ लोग साधु भी कह रहे थे. उनका कहना था कि नाला नहीं दिला सके तो आगे देंगे क्या ? वैसे नेताजी अभी कोई घोषणा भी नहीं कर सकते हैं. आचार संहिता में फंस जायेंगे. लोग यह माने तब न. एक तो पांच साल पर एक बार में धरे-पकड़े जा रहे हैं. ऊपर से आचार संहिता की बात कह हाथ से फिसल रहे हैं. नेताजी के जाते ही लोग हमलोगों के पास आ गये. ग्रामीणों का एक स्वर में कहना था कि वोट उसी को देंगे, जो अपने बीच का होगा. जिसे ‘हौ-रौ’ में अपने दिल की बात कह पायेंगे. बाहर वाला कभी आयेगा भी कि नहीं, पता नहीं. इनमें से एक महिला का मैंने नाम पूछा. उनका जवाब था- साधु जी का नाम छापिये. पता नहीं वह नाम बताने से इतना क्यों घबरा रहीं थीं. बहुत कुरेदने पर कहा- उषा कुमारी. इस नाम में संशय लगा. लग रहा था वह पंचायत के किसी पद पर आशीन हैं. उनके हाथ में मोबाइल और कहने का तरीका से लग रहा था कि यदि वह आगे बढ़ी, तो राजनीति की बड़ी लंबी छलांग लगायेंगी. वे नेताजी के घेराव वाले मामले के डाइमेज कंट्रोल करने की तरह बोल रही थीं- वोट ओकरे देबै, जे अपन बेटा हेतै. बेटा के एक कटोरा दय देबै आ कहबै बेटा भीखो मांगी के पेट पाली ले.  
हवा किधर? ओनै आर केनै... 
हम आगे बढ़ चुके हैं. मुख्य बाजार में टिंकू कुमार की पान दुकान पर खड़े होते हैं. उनसे सवाल दागते हैं. हवा किधर? ओनै आर केनै... नहीं वोट देंगे किस पार्टी को. जिसे देते थे, उसे ही देंगे. वे अपने प्रत्यशी का चयन कर चुके थे. वे अनुभवी को अपना वोट देंगे. वे अपने बीच के लोग को अपना मत देंगे. आगे बढ़ने पर अरविंद कुमार गुप्ता मिले. वे कहते हैं- जनता इतना बेवकूफ है अब कि कह देगी कि किसको वोट देंगे. हां, यहां मुद्दा-उद्दा कुछ नहीं. विकास भी कोई मायने नहीं रखता. पार्टी है, लोकल चेहरा है यही दो बातंे मायने इस बार रखेगी. वोट देना है, तो देना है. महराज! कोई आये-जाये, विकास-तिकास नहीं करता. सब जनता को ठगता है. इस बीच देवेश कुमार चौधरी भी चर्चा में शामिल हो जाते हैं. वे बड़े स्पीड से कई बातें कह जाते हैं. उद्भुत वाक्शक्ति दिखी. कहते हैं- मुद्दा, तो हैं लेकिन प्रत्याशी देख कर ही वोट देंगे. देखिये जब आप मुद्दे की बाते करते हैं, तो यह जान लीजिये. सुल्तानगंज टापू बन गया... एकदम टापू. पूर्वी छोड़ पर चंपानाला, पश्चिमी छोड़ पर घोरघट पुल क्षतिग्रस्त है. बड़े वाहन नहीं आ रहे. व्यवसाय चौपट हो गया है. इसे देखने वाला कोई नहीं है. 
सीढ़ी घाट के नजदीक मिलते हैं कुछ युवा. संजय कुमार यादव, आलोक कुमार, योगेंद्र, सोनू आदि. ये यहीं के रहने वाले हैं. इन्हें चुनावी चर्चा में उतना रस नहीं मिलता. इनमें से कुछ तो वोट देंगे भी तो देख-सुन कर. 
बहरहाल सुल्तानगंज में गंगा की अविरल धारा की तरह अभी चुनावी चर्चा बह रही है. कई बातें हो रही हैं. पर चुनाव के बाद ही पता चलेगा पानी कितना किधर बहा. हम भागलपुर की ओर बढ़ रहे हैं. हमारे आगे-आगे सड़क पर एक फटे सर्ट वाले साइकिल चालक के सर्ट के पीछे एक पार्टी का स्टीकर सटा है. उसमें कई वादे लिखे हुए हैं. ठीक उसके सामने से एक रिक्शा आगे बढ़ता है. उस पर पीछे में पेंट से लिखा है- फतेहपुर-2 ...हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है.

गुरुवार, 3 सितंबर 2015

जेहन में बसे गांव के नाटक

गांव की चौबटिया से 

कुमार राहुल
एक नाटक का रिहर्सल करते बच्चे।

मेरे मन में एक गांव अब भी बसा है, जो गाहे-बगाहे मुङो हंसाता है, रुलाता है. हम चाह कर भी उसे नहीं भूल पाते. मन के किसी कोने में शैतान बच्चे की तरह दुबका, एक आंख से देखता यह गांव दुर्गा पूजा, छठ, होली से गुलजार है. दुर्गा पूजा है, तो नाटक है, होली है, तो नाटक के पात्र हैं. ऐसे पात्र जो गांव को गांव बनाये रखते हैं. मैं पहले दसहरा में होने वाले नाटकों में राजा बन जाता था, तो कभी चोर. कभी डकैत बन जाता था, तो कभी सिपाही. कभी आंदोलन छेड़ कर व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की बात करता था. पर अब मैं कुछ भी नहीं बन पाता. मैं खुद के द्वारा बनाये गये खोल में दुबक गया हूं. पर पता नहीं इस बार बेसब्री से मन में बसा यह छोटा शैतान बच्चे-सा गांव बुला रहा है मुङो. वैसे तो गांव के बारे में आधी-अधूरी जानकारी मिलती रहती है. पता चला है कि जो भौजी बिना घूंघट के घर से बाहर नहीं निकलती थी, वह जनप्रतिनिधि बन गयी है. स्वच्छता अभियान चल रहा है. मुङो गांव में स्वच्छता अभियान चलाने की बात सुनते ही श्रीलाल शुक्ल की राग दरबारी उपन्यास की याद आ जाती है. गांव की पगडंडी से सुबह-शाम चलना मतलब दर्जनों लोगों का सैल्यूट लेना.. मैं देखना चाहता हूं कि स्वच्छता अभियान के बाद क्या यह दृश्य जिंदा है? गरमी में मुङो सीतलपाटी की बरबस याद आ जाती है. वैसे स्वच्छता अभियान और शीतलपाटी की कोई तारतम्यता नहीं है, लेकिन मन है कि दोनों बातें एक साथ याद आ जाती है. पता चला है कि जिस चौर (गीली जमीन वाला क्षेत्र) की कृपा से शीतलपाटी मिल जाया करती थी, वहां से एनएच गुजरने लगा है. बगल में मॉल खुलने की बात भी किसी ने बतायी थी. मॉल खुलने की बात से मुङो रामलगन सब्जी वाले, पाठक काका की सब कुछ एक ही जगह मिलने वाली दुकान, बिजली पान दुकान, पाही वाले का आटा चक्की और कमला पुल से सटे नाचने वाले (नटुआ) मोची की याद आ जाती है. यह भी याद आती है कि कैसे छोटी लाइन की ट्रेन गायब होने लगी और अब इस धंसती हुई पटरी पर बुलेट ट्रेन दौड़ेगी! वैसे तो मन में बसे गांव में एक नदी भी है, जो कभी कल-कल बहती थी, लेकिन मेरे मन की तरह यह नदी भी मरने लगी है. नदी होना एक पूरी सभ्यता का होना/बसना है. पर दूसरे रूप में सोचें तो मन की धारा उस नदी की तरह तो है ही जो बार-बार कमला-कोसी के रूप में निरंतर बहती रहती है और यही निरंतरता मुङो गांव से जोड़े रखती है. वैसे पता चला है कि गांव के किसानों के लिए दिल्ली-पटना ने कई योजनाओं की घोषणा कर दी है. इससे गांव ‘नदिया के पार’ की तरह नहीं ‘दिल वाले दुलहनिया ले जायेंगे’ टाइप हो जायेगा. सरकार ने गांव बदलने के लिए कमर कस ली है. अब पलटू बाबू रोड नहीं, वाया बाइपास गांव पहुंचना होगा. सोचता हूं कि एक बार गांव हो आउं और अंधेर नगरी चौपट राजा नाटक जरूर खेलूं.