शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

धरती बचाने की जद्दोजहद

जलवायु परिवर्तन पर गंभीर नेपाल का मिथिलांचल
 देश में भयानक अकाल पड़ा था. किसान दाने-दाने को मोहताज थे. इंद्रदेव को
तरस नहीं आ रहा था. तब रजा जनक ने परती जमीन में हल चलाया. धरती की कोख से निकली सीता मैया. खूब बारिश हुई और धरती ने ओढ़ ली धानी चुनरिया...
खतरे में सगरमाथा
१५ किमी की यात्रा साइकिल से तय करने के बाद भी ६२ वर्षीय रामप्रवेश यादव के चेहरे पर थकान के कोई भाव नजर नहीं आ रहे थे. नवंबर का महीना था लेकिन धूप में तल्खी थी. रामप्रवेश के माथे पर पसीने की कुछ बूंदें उभर आयी थी, जिसे पोंछकर वे जनकपुर के देवी चौक के छेना मंडल की चाय दुकान में घुसते हैं. वे लोगों को बताते हैं कि नवंबर की धूप में इतनी तल्खी क्यों है. वे लोगों को बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन पूरी दुनिया को निगल जायेगा. और तब इस सुंदर मिथिला और सुंदर नेपाल का क्या होगा. क्या होगा संसार की सबसे ऊँची चोटी सागरमाथा का. इस संकट से दुनिया को उबरना है, तो लोगों को जागरूक होना पड़ेगा.
रामप्रवेश जनकपुर से 15 किमी दूर महिनाथपुर गाँव के रहने वाले हैं. जनकपुर आना-जाना लगा रहता है. महिनाथपुर से जनकपुर आने वाले रामप्रवेश जैसे कई लोग हैं जो आज भी साइकिल या पैदल आते हैं. गाँव से बस, टेम्पो चलते हैं. जयनगर{भारत} से जनकपुर जाने वाली ट्रेन भी गाँव होकर गुजरती है. लेकिन रामप्रवेश कहते हैं कि हम अपपनी आदतें बदल कर जहरिली गैसों के उत्सर्जन को कम कर सकते हैं. अगर हम जल्द ही सावधान नहीं हुए, तो दुनिया को बर्बाद होने से कोई रोक नहीं सकता.
रामप्रवेश जनकपुर के मिथिलांचल विकास परिषद् नामक एक संस्था से जुड़े हुए हैं. मिथिलांचल विकास परिषद् इन दिनों नेपाल में जलवायु परिवर्तन पर कम कर रहा है. रामप्रवेश बताते हैं कि सिर्फ एक-दो संस्था के काम करने से संकट का समाधान नहीं होने वाला है. इसके लिए सबको जागरूक होना पड़ेगा, वर्ना हमारे पापों के कारण दुनिया बर्बाद हो जाएगी. महिनाथपुर के आस-पास के गांवों में इन दिनों बाढ़ व सुखा से निपटने के लिए काफी काम किये जा रहे हैं. सिंचाई के लिए यहां  के ग्रामीणों ने मिथिलांचल विकास परिषद् के सहयोग से कमला नदी से एक नहर निकाली. ग्रामीणों ने इसके लिए श्रमदान किया. मिथिलाचल विकास परिषद् ने इसके लिए लोगों को जागरूक किया. पांच किमी लंबी नहर बनाने के बाद किसानों को सिंचाई का साधन ही नहीं मिला, बल्कि बाढ़ की समस्या का भी कुछ हद तक समाधान मिल गया. नहर बन जाने के बाद अब बाढ़ का पानी गाँव  में जमता नहीं है. ग्रामीणों का कहना है कि बाढ़ का पानी खेतों में जम जाने के कारण फसलें सड़ जाती है. किसानों का काफी नुकसान होता है. यह समस्या इन दस सालों में पैदा हुई है. यहां के लोगों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण या तो बाढ़ की समस्या गहराएगी, या फिर भयानक सूखा पड़ेगा. इसलिए जल को बचाना जरुरी है. 
जनकपुर के आस-पपस के गांवों में इस तरह के कई काम हो रहे हैं. जनकपुर शहर में भी इन दिनों चौक- चौराहों पर लोगों को जागरूक करने वाले बैनर-पोस्टर टंगे हुए मिल जायेंगे.
जलवायु परिवर्तन पर कोपेनहेगेन में सम्मलेन होने से पहले सगरमाथा {मौंट एवरेस्ट} के पास कैबिनेट की बैठक कर जलवायु परिवर्तन पर नेपाल अपनी जागरूकता दुनिया भर में प्रगट कर चुका है. इस समय नेपाल का यह प्रयास सचमुच काबिले तारीफ है. जहरिली गैसों का उत्सर्जन करने में अव्वल स्थान रखने वाले मुल्कों को इस बात की फिक्र तक नहीं है लेकिन नेपाल इस मुद्दे पर गंभीर है.  नेपाल इस बात से चकित है कि जहरिली गैसों का उत्सर्जन करने के मामले में उसका स्थान अभी काफी नीचे हैं लेकिन उसके हिमालय पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं. झीलें सूखने लगी हैं. राजनीतिक रूप से अस्थिर नेपाल में जो कुछ कल कारखाने थे वो भी बंद हो गए हैं या बंद होने के कगार पर हैं. लेकिन उसका सगरमाथा, जिस पर हर नेपाली नाज करता है, पर संकट मंडराने लगा है. नेपाली इस बात को लेकर अपने पड़ोसी भारत व चीन से भी नाराज हैं. उनका मानना है कि ये दोनों देश समर्थ हैं और जहरिली गैसों का उत्सर्जन करने में अव्वल स्थान रखने वाले देशों से यह कह सकते हैं कि वे इसमें कटौती करे. रामप्रवेश बताते हैं कि अगर हिमालय पगलाया तो इसका खमियाजा सिर्फ नेपाल नहीं भुगतेगा, बल्कि भारत,चीन, भूटान, पाकिस्तान को भी इसका खमियाजा भुगतना पड़ेगा. धरती को बचाने की दिशा में रामप्रवेश जैसे लोगों की ऐसी पहल भले ही नाकाफी हो लेकिन ऐसी पहल से दुनिया भर के लोगों को सिख लेनी चाहिए.       
                                                                         -सच्चिदानंद                                    

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

मुक्तिबोध की याद में

 बाबा अपनी पुण्यतिथि पर भुला दिए गए. बाबा को उनके झंडाबरदारों ने भी याद नहीं किया. यह सच है कि पुण्यतिथि व जयंती पर होने वाले आयोजन औपचारिक होते हैं लेकिन ये आयोजन हमें हमरी समृद्ध विरासत से अवगत करते हैं. ये आयोजन हमें बताते हैं कि उन युग पुरुषों ने हमारे लिए और हमारे देश समाज के लिए क्या किया, क्या सोचा. मुक्तिबोध की जयंती १३ नवंबर को है. मुक्तिबोध का जन्म श्यौपुर, ग्वालियर में हुआ. नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. किया व आजीवन साहित्य-सृजन और पत्रकारिता से जुडे रहे. मुक्तिबोध अपनी लम्बी कविताओं के लिए प्रसिध्द हैं. इनकी कविता में जीवन के प्रति विषाद और आक्रोश है. ये काव्य में नए स्वर के प्रवर्तक तथा मौलिक चिंतक हैं. इन्होंने निबंध, कहानियां तथा समीक्षाएं भी लिखी हैं.
उनकी जयंती पर यहाँ पेश है उनकी लंबी कविता चाँद का मुंह टेढ़ा है.

चाँद का मुंह टेढ़ा है.

नगर के बीचों-बीच
आधी रात--अंधेरे की काली स्याह

शिलाओं से बनी हुई
भीतों और अहातों के, काँच-टुकड़े जमे हुए
ऊँचे-ऊँचे कन्धों पर
चांदनी की फैली हुई सँवलायी झालरें।
कारखाना--अहाते के उस पार
धूम्र मुख चिमनियों के ऊँचे-ऊँचे
उद्गार--चिह्नाकार--मीनार
मीनारों के बीचों-बीच
चांद का है टेढ़ा मुँह!!
भयानक स्याह सन तिरपन का चांद वह !!
गगन में करफ़्यू है
धरती पर चुपचाप ज़हरीली छिः थूः है !!
पीपल के खाली पड़े घोंसलों में पक्षियों के,
पैठे हैं खाली हुए कारतूस ।
गंजे-सिर चांद की सँवलायी किरनों के जासूस
साम-सूम नगर में धीरे-धीरे घूम-घाम
नगर के कोनों के तिकोनों में छिपे है !!
चांद की कनखियों की कोण-गामी किरनें
पीली-पीली रोशनी की, बिछाती है
अंधेरे में, पट्टियाँ ।
देखती है नगर की ज़िन्दगी का टूटा-फूटा
उदास प्रसार वह ।

समीप विशालकार
अंधियाले लाल पर
सूनेपन की स्याही में डूबी हुई
चांदनी भी सँवलायी हुई है !!

भीमाकार पुलों के बहुत नीचे, भयभीत
मनुष्य-बस्ती के बियाबान तटों पर
बहते हुए पथरीले नालों की धारा में
धराशायी चांदनी के होंठ काले पड़ गये

हरिजन गलियों में
लटकी है पेड़ पर
कुहासे के भूतों की साँवली चूनरी--
चूनरी में अटकी है कंजी आँख गंजे-सिर
टेढ़े-मुँह चांद की ।

बारह का वक़्त है,
भुसभुसे उजाले का फुसफुसाता षड्यन्त्र
शहर में चारों ओर;
ज़माना भी सख्त है !!

अजी, इस मोड़ पर
बरगद की घनघोर शाखाओं की गठियल
अजगरी मेहराब--
मरे हुए ज़मानों की संगठित छायाओं में

बसी हुई
सड़ी-बुसी बास लिये--
फैली है गली के
मुहाने में चुपचाप ।
लोगों के अरे ! आने-जाने में चुपचाप,
अजगरी कमानी से गिरती है टिप-टिप
फड़फड़ाते पक्षियों की बीट--
मानो समय की बीट हो !!
गगन में कर्फ़्यू है,
वृक्षों में बैठे हुए पक्षियों पर करफ़्यू है,
धरती पर किन्तु अजी ! ज़हरीली छिः थूः है ।

बरगद की डाल एक
मुहाने से आगे फैल
सड़क पर बाहरी
लटकती है इस तरह--
मानो कि आदमी के जनम के पहले से
पृथ्वी की छाती पर
जंगली मैमथ की सूँड़ सूँघ रही हो
हवा के लहरीले सिफ़रों को आज भी
बरगद की घनी-घनी छाँव में
फूटी हुई चूड़ियों की सूनी-सूनी कलाई-सी

सूनी-सूनी गलियों में
ग़रीबों के ठाँव में--
चौराहे पर खड़े हुए
भैरों की सिन्दूरी
गेरुई मूरत के पथरीले व्यंग्य स्मित पर
टेढ़े-मुँह चांद की ऐयारी रोशनी,
तिलिस्मी चांद की राज़-भरी झाइयाँ !!
तजुर्बों का ताबूत
ज़िन्दा यह बरगद
जानता कि भैरों यह कौन है !!
कि भैरों की चट्टानी पीठ पर
पैरों की मज़बूत
पत्थरी-सिन्दूरी ईट पर
भभकते वर्णों के लटकते पोस्टर
ज्वलन्त अक्षर !!

सामने है अंधियाला ताल और
स्याह उसी ताल पर
सँवलायी चांदनी,
समय का घण्टाघर,
निराकार घण्टाघर,
गगन में चुपचाप अनाकार खड़ा है !!
परन्तु, परन्तु...बतलाते
ज़िन्दगी के काँटे ही
कितनी रात बीत गयी

चप्पलों की छपछप,
गली के मुहाने से अजीब-सी आवाज़,
फुसफुसाते हुए शब्द !
जंगल की डालों से गुज़रती हवाओं की सरसर
गली में ज्यों कह जाय
इशारों के आशय,
हवाओं की लहरों के आकार--
किन्हीं ब्रह्मराक्षसों के निराकार
अनाकार
मानो बहस छेड़ दें
बहस जैसे बढ़ जाय
निर्णय पर चली आय
वैसे शब्द बार-बार
गलियों की आत्मा में
बोलते हैं एकाएक
अंधेरे के पेट में से
ज्वालाओं की आँत बाहर निकल आय
वैसे, अरे, शब्दों की धार एक
बिजली के टॉर्च की रोशनी की मार एक
बरगद के खुरदरे अजगरी तने पर
फैल गयी अकस्मात्
बरगद के खुरदरे अजगरी तने पर
फैल गये हाथ दो
मानो ह्रदय में छिपी हुई बातों ने सहसा
अंधेरे से बाहर आ भुजाएँ पसारी हों
फैले गये हाथ दो
चिपका गये पोस्टर
बाँके तिरछे वर्ण और
लाल नीले घनघोर
हड़ताली अक्षर
इन्ही हलचलों के ही कारण तो सहसा
बरगद में पले हुए पंखों की डरी हुई
चौंकी हुई अजीब-सी गन्दी फड़फड़
अंधेरे की आत्मा से करते हुए शिकायत
काँव-काँव करते हुए पक्षियों के जमघट
उड़ने लगे अकस्मात्
मानो अंधेरे के
ह्रदय में सन्देही शंकाओं के पक्षाघात !!
मद्धिम चांदनी में एकाएक एकाएक
खपरैलों पर ठहर गयी
बिल्ली एक चुपचाप
रजनी के निजी गुप्तचरों की प्रतिनिधि
पूँछ उठाये वह
जंगली तेज़
आँख
फैलाये
यमदूत-पुत्री-सी
(सभी देह स्याह, पर
पंजे सिर्फ़ श्वेत और
ख़ून टपकाते हुए नाख़ून)
देखती है मार्जार
चिपकाता कौन है
मकानों की पीठ पर
अहातों की भीत पर
बरगद की अजगरी डालों के फन्दों पर
अंधेरे के कन्धों पर
चिपकाता कौन है ?
चिपकाता कौन है
हड़ताली पोस्टर
बड़े-बड़े अक्षर
बाँके-तिरछे वर्ण और
लम्बे-चौड़े घनघोर
लाल-नीले भयंकर
हड़ताली पोस्टर !!
टेढ़े-मुँह चांद की ऐयारी रोशनी भी ख़ूब है
मकान-मकान घुस लोहे के गज़ों की जाली
के झरोखों को पार कर
लिपे हुए कमरे में
जेल के कपड़े-सी फैली है चांदनी,
दूर-दूर काली-काली
धारियों के बड़े-बड़े चौखट्टों के मोटे-मोटे
कपड़े-सी फैली है
लेटी है जालीदार झरोखे से आयी हुई
जेल सुझाती हुई ऐयारी रोशनी !!
अंधियाले ताल पर
काले घिने पंखों के बार-बार
चक्करों के मंडराते विस्तार
घिना चिमगादड़-दल भटकता है चारों ओर
मानो अहं के अवरुद्ध
अपावन अशुद्ध घेरे में घिरे हुए
नपुंसक पंखों की छटपटाती रफ़्तार
घिना चिमगादड़-दल
भटकता है प्यासा-सा,
बुद्धि की आँखों में
स्वार्थों के शीशे-सा !!

बरगद को किन्तु सब
पता था इतिहास,
कोलतारी सड़क पर खड़े हुए सर्वोच्च
गान्धी के पुतले पर
बैठे हुए आँखों के दो चक्र
यानी कि घुग्घू एक--
तिलक के पुतले पर
बैठे हुए घुग्घू से
बातचीत करते हुए
कहता ही जाता है--
"......मसान में......
मैंने भी सिद्धि की ।
देखो मूठ मार दी
मनुष्यों पर इस तरह......"
तिलक के पुतले पर बैठे हुए घुग्घू ने
देखा कि भयानक लाल मूँठ
काले आसमान में
तैरती-सी धीरे-धीरे जा रही
उद्गार-चिह्नाकार विकराल
तैरता था लाल-लाल !!
देख, उसने कहा कि वाह-वाह
रात के जहाँपनाह
इसीलिए आज-कल
दिल के उजाले में भी अंधेरे की साख है
रात्रि की काँखों में दबी हुई
संस्कृति-पाखी के पंख है सुरक्षित !!
...पी गया आसमान
रात्रि की अंधियाली सच्चाइयाँ घोंट के,
मनुष्यों को मारने के ख़ूब हैं ये टोटके !
गगन में करफ़्यू है,
ज़माने में ज़ोरदार ज़हरीली छिः थूः है !!
सराफ़े में बिजली के बूदम
खम्भों पर लटके हुए मद्धिम
दिमाग़ में धुन्ध है,
चिन्ता है सट्टे की ह्रदय-विनाशिनी !!
रात्रि की काली स्याह
कड़ाही से अकस्मात्
सड़कों पर फैल गयी
सत्यों की मिठाई की चाशनी !!
टेढ़े-मुँह चांद की ऐयारी रोशनी
भीमाकार पुलों के
ठीक नीचे बैठकर,
चोरों-सी उचक्कों-सी
नालों और झरनों के तटों पर
किनारे-किनारे चल,
पानी पर झुके हुए
पेड़ों के नीचे बैठ,
रात-बे-रात वह
मछलियाँ फँसाती है
आवारा मछुओं-सी शोहदों-सी चांदनी
सड़कों के पिछवाड़े
टूटे-फूटे दृश्यों में,
गन्दगी के काले-से नाले के झाग पर
बदमस्त कल्पना-सी फैली थी रात-भर
सेक्स के कष्टों के कवियों के काम-सी !
किंग्सवे में मशहूर
रात की है ज़िन्दगी !
सड़कों की श्रीमान्
भारतीय फिरंगी दुकान,
सुगन्धित प्रकाश में चमचमाता ईमान
रंगीन चमकती चीज़ों के सुरभित
स्पर्शों में
शीशों की सुविशाल झाँइयों के रमणीय
दृश्यों में
बसी थी चांदनी
खूबसूरत अमरीकी मैग्ज़ीन-पृष्ठों-सी
खुली थी,
नंगी-सी नारियों के
उघरे हुए अंगों के
विभिन्न पोज़ों मे
लेटी थी चांदनी
सफे़द
अण्डरवियर-सी, आधुनिक प्रतीकों में
फैली थी
चांदनी !
करफ़्यू नहीं यहाँ, पसन्दगी...सन्दली,
किंग्सवे में मशहूर रात की है ज़िन्दगी
अजी, यह चांदनी भी बड़ी मसखरी है !!
तिमंज़ले की एक
खिड़की में बिल्ली के सफे़द धब्बे-सी
चमकती हुई वह
समेटकर हाथ-पाँव
किसी की ताक में
बैठी हुई चुपचाप
धीरे से उतरती है
रास्तों पर पथों पर;
चढ़ती है छतों पर
गैलरी में घूम और
खपरैलों पर चढ़कर
नीमों की शाखों के सहारे
आंगन में उतरकर
कमरों में हलके-पाँव
देखती है, खोजती है--
शहर के कोनों के तिकोने में छुपी हुई
चांदनी
सड़क के पेड़ों के गुम्बदों पर चढ़कर
महल उलाँघ कर
मुहल्ले पार कर
गलियों की गुहाओं में दबे-पाँव
खुफ़िया सुराग़ में
गुप्तचरी ताक में
जमी हुई खोजती है कौन वह
कन्धों पर अंधेरे के
चिपकाता कौन है
भड़कीले पोस्टर,
लम्बे-चौड़े वर्ण और
बाँके-तिरछे घनघोर
लाल-नीले अक्षर ।

कोलतारी सड़क के बीचों-बीच खड़ी हुई
गान्धी की मूर्ति पर
बैठे हुए घुग्घू ने
गाना शुरु किया,
हिचकी की ताल पर
साँसों ने तब
मर जाना
शुरु किया,
टेलीफ़ून-खम्भों पर थमे हुए तारों ने
सट्टे के ट्रंक-कॉल-सुरों में
थर्राना और झनझनाना शुरु किया !
रात्रि का काला-स्याह
कन-टोप पहने हुए
आसमान-बाबा ने हनुमान-चालीसा
डूबी हुई बानी में गाना शुरु किया ।
मसान के उजाड़
पेड़ों की अंधियाली शाख पर
लाल-लाल लटके हुए
प्रकाश के चीथड़े--
हिलते हुए, डुलते हुए, लपट के पल्लू ।
सचाई के अध-जले मुर्दों की चिताओं की
फटी हुई, फूटी हुई दहक में कवियों ने
बहकती कविताएँ गाना शुरु किया ।
संस्कृति के कुहरीले धुएँ से भूतों के
गोल-गोल मटकों से चेहरों ने
नम्रता के घिघियाते स्वांग में
दुनिया को हाथ जोड़
कहना शुरु किया--
बुद्ध के स्तूप में
मानव के सपने
गड़ गये, गाड़े गये !!
ईसा के पंख सब
झड़ गये, झाड़े गये !!
सत्य की
देवदासी-चोलियाँ उतारी गयी
उघारी गयीं,
सपनों की आँते सब
चीरी गयीं, फाड़ी गयीं !!
बाक़ी सब खोल है,
ज़िन्दगी में झोल है !!
गलियों का सिन्दूरी विकराल
खड़ा हुआ भैरों, किन्तु,
हँस पड़ा ख़तरनाक
चांदनी के चेहरे पर
गलियों की भूरी ख़ाक
उड़ने लगी धूल और
सँवलायी नंगी हुई चाँदनी !
और, उस अँधियाले ताल के उस पार
नगर निहारता-सा खड़ा है पहाड़ एक
लोहे की नभ-चुम्भी शिला का चबूतरा
लोहांगी कहाता है
कि जिसके भव्य शीर्ष पर
बड़ा भारी खण्डहर
खण्डहर के ध्वंसों में बुज़ुर्ग दरख़्त एक
जिसके घने तने पर
लिक्खी है प्रेमियों ने
अपनी याददाश्तें,
लोहांगी में हवाएँ
दरख़्त में घुसकर
पत्तों से फुसफुसाती कहती हैं
नगर की व्यथाएँ
सभाओं की कथाएँ
मोर्चों की तड़प और
मकानों के मोर्चे
मीटिंगों के मर्म-राग
अंगारों से भरी हुई
प्राणों की गर्म राख
गलियों में बसी हुई छायाओं के लोक में
छायाएँ हिलीं कुछ
छायाएँ चली दो
मद्धिम चांदनी में
भैरों के सिन्दूरी भयावने मुख पर
छायीं दो छायाएँ
छरहरी छाइयाँ !!
रात्रि की थाहों में लिपटी हुई साँवली तहों में
ज़िन्दगी का प्रश्नमयी थरथर

थरथराते बेक़ाबू चांदनी के
पल्ले-सी उड़ती है गगन-कंगूरों पर ।
पीपल के पत्तों के कम्प में
चांदनी के चमकते कम्प से
ज़िन्दगी की अकुलायी थाहों के अंचल
उड़ते हैं हवा में !!

गलियों के आगे बढ़
बगल में लिये कुछ
मोटे-मोटे कागज़ों की घनी-घनी भोंगली
लटकाये हाथ में
डिब्बा एक टीन का
डिब्बे में धरे हुए लम्बी-सी कूँची एक
ज़माना नंगे-पैर
कहता मैं पेण्टर
शहर है साथ-साथ
कहता मैं कारीगर--
बरगद की गोल-गोल
हड्डियों की पत्तेदार
उलझनों के ढाँचों में
लटकाओ पोस्टर,
गलियों के अलमस्त
फ़क़ीरों के लहरदार
गीतों से फहराओ
चिपकाओ पोस्टर
कहता है कारीगर ।
मज़े में आते हुए
पेण्टर ने हँसकर कहा--
पोस्टर लगे हैं,
कि ठीक जगह
तड़के ही मज़दूर
पढ़ेंगे घूर-घूर,
रास्ते में खड़े-खड़े लोग-बाग
पढ़ेंगे ज़िन्दगी की
झल्लायी हुई आग !
प्यारे भाई कारीगर,
अगर खींच सकूँ मैं--
हड़ताली पोस्टर पढ़ते हुए
लोगों के रेखा-चित्र,
बड़ा मज़ा आयेगा ।
कत्थई खपरैलों से उठते हुए धुएँ
रंगों में
आसमानी सियाही मिलायी जाय,
सुबह की किरनों के रंगों में
रात के गृह-दीप-प्रकाश को आशाएँ घोलकर
हिम्मतें लायी जायँ,
स्याहियों से आँखें बने
आँखों की पुतली में धधक की लाल-लाल
पाँख बने,
एकाग्र ध्यान-भरी
आँखों की किरनें
पोस्टरों पर गिरे--तब
कहो भाई कैसा हो ?
कारीगर ने साथी के कन्धे पर हाथ रख
कहा तब--
मेरे भी करतब सुनो तुम,
धुएँ से कजलाये
कोठे की भीत पर
बाँस की तीली की लेखनी से लिखी थी
राम-कथा व्यथा की
कि आज भी जो सत्य है
लेकिन, भाई, कहाँ अब वक़्त है !!
तसवीरें बनाने की
इच्छा अभी बाक़ी है--
ज़िन्दगी भूरी ही नहीं, वह ख़ाकी है ।
ज़माने ने नगर के कन्धे पर हाथ रख
कह दिया साफ़-साफ़
पैरों के नखों से या डण्डे की नोक से
धरती की धूल में भी रेखाएँ खींचकर
तसवीरें बनाती हैं
बशर्ते कि ज़िन्दगी के चित्र-सी
बनाने का चाव हो
श्रद्धा हो, भाव हो ।
कारीगर ने हँसकर
बगल में खींचकर पेण्टर से कहा, भाई
चित्र बनाते वक़्त
सब स्वार्थ त्यागे जायँ,
अंधेरे से भरे हुए
ज़ीने की सीढ़ियाँ चढ़ती-उतरती जो
अभिलाषा--अन्ध है
ऊपर के कमरे सब अपने लिए बन्द हैं
अपने लिए नहीं वे !!
ज़माने ने नगर से यह कहा कि
ग़लत है यह, भ्रम है
हमारा अधिकार सम्मिलित श्रम और
छीनने का दम है ।
फ़िलहाल तसवीरें
इस समय हम
नहीं बना पायेंगे
अलबत्ता पोस्टर हम लगा जायेंगे ।
हम धधकायेंगे ।
मानो या मानो मत
आज तो चन्द्र है, सविता है,
पोस्टर ही कविता है !!
वेदना के रक्त से लिखे गये
लाल-लाल घनघोर
धधकते पोस्टर
गलियों के कानों में बोलते हैं
धड़कती छाती की प्यार-भरी गरमी में
भाफ-बने आँसू के ख़ूँख़ार अक्षर !!
चटाख से लगी हुई
रायफ़ली गोली के धड़ाकों से टकरा
प्रतिरोधी अक्षर
ज़माने के पैग़म्बर
टूटता आसमान थामते हैं कन्धों पर
हड़ताली पोस्टर
कहते हैं पोस्टर--
आदमी की दर्द-भरी गहरी पुकार सुन
पड़ता है दौड़ जो
आदमी है वह ख़ूब
जैसे तुम भी आदमी
वैसे मैं भी आदमी,
बूढ़ी माँ के झुर्रीदार
चेहरे पर छाये हुए
आँखों में डूबे हुए
ज़िन्दगी के तजुर्बात
बोलते हैं एक साथ
जैसे तुम भी आदमी
वैसे मैं भी आदमी,
चिल्लाते हैं पोस्टर ।
धरती का नीला पल्ला काँपता है
यानी आसमान काँपता है,
आदमी के ह्रदय में करुणा कि रिमझिम,
काली इस झड़ी में
विचारों की विक्षोभी तडित् कराहती
क्रोध की गुहाओं का मुँह खोले
शक्ति के पहाड़ दहाड़ते
काली इस झड़ी में वेदना की तडित् कराहती
मदद के लिए अब,
करुणा के रोंगटों में सन्नाटा
दौड़ पड़ता आदमी,
व आदमी के दौड़ने के साथ-साथ
दौड़ता जहान
और दौड़ पड़ता आसमान !!

मुहल्ले के मुहाने के उस पार
बहस छिड़ी हुई है,
पोस्टर पहने हुए
बरगद की शाखें ढीठ
पोस्टर धारण किये
भैंरों की कड़ी पीठ
भैंरों और बरगद में बहस खड़ी हुई है
ज़ोरदार जिरह कि कितना समय लगेगा
सुबह होगी कब और
मुश्किल होगी दूर कब
समय का कण-कण
गगन की कालिमा से
बूंद-बूंद चू रहा
तडित्-उजाला बन !!    

बुधवार, 3 नवंबर 2010

बाबा नागार्जुन की पुण्यतिथि पर विशेष

पांच नवम्बर १९९८ की रात दरभंगा रेडियो से यह सूचना मिली थी कि बाबा नागार्जुन नहीं रहे. तरौनी में उनका अंतिम संस्कार होगा. अब तक कई कवियों के दिवंगत होने की सूचना रेडियो व टीवी से मिली थी लेकिन बाबा ऐसे पहले कवि थे जिनके गुजरने की खबर की चर्चा पूरे गाँव में हो रही थी. अभी कुछ दिन पहले कलम ही पकड़ा था और एक-दो कार्यक्रमों में उनसे भेंट भी हो चुकी थी. ऐसे में उनका अंतिम दर्शन नहीं करने का सवाल ही कहाँ पैदा होता था. मेरे गाँव से तरौनी की दूरी काफी नहीं थी, सो सुबह होते ही तरौनी के लिए निकल पड़ा था. सकरी स्टेशन से तरौनी जाने वाली सड़क पर काफी भीड़ लगी थी. भीड़ देखने से लगता था मानों किसी नेता का आगमन होने वाला हो. पूछने पर पता चला कि ये लोग किसी नेता का नहीं, बल्कि बाबा नागार्जुन का अंतिम दर्शन करने के लिए खड़े थे. किसी कवि का अंतिम दर्शन करने के लिए लोगों की इतनी भीड़ न पहले कभी देखी थी और न ही ऐसा कभी सुना था. यह बाबा का लोक प्रेम ही था कि उनका अंतिम दर्शन करने के लिए उन लोगों का हुजूम भी उमड़ पड़ा था, जिनका साहित्य से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था.
मेरे पास इतने ही पैसे थे कि मैं सकरी से पैटघाट तक बस से जा सकूं. सो, सकरी से तरौनी तक की लगभग चार किमी की यात्रा पैदल ही तय करनी थी. इसका सबसे बड़ा फायदा मुझे यह मिला कि रास्ते में लोगों को बाबा के बारे में बोलते-बतियाते सुना. हैरत की बात यह थी कि बाबा के बारे में वे भी चर्चा कर रहे थे जो निरक्षर थे. सब उस आदमी के अंतिम दर्शन के लिए आतुर थे, जो उनके बीच का था, जो उनके समाज का था. और लगता था कि यहीं कहीं है बाबा का बलचनमा, रतिनाथ की चाची, वरुण के बेटे का वह हर किरदार जो अदम्य जिजीविषा लिए हुए है. मैं आगे-आगे चल रहा था और पीछे एक ट्रक पर आ रहा था बाबा का पार्थिव शरीर. लेकिन मेरी आखों के सामने बाबा जीवित थे. बाबा जीवित थे उन लोगों में, जिनमे बलचनमा व रतिनाथ की चाची जीवित थे. बाबा उन लोगों में जीवित थे जो उनका अंतिम दर्शन करने के लिए व्यग्र थे. बाबा की पुण्यतिथि पांच नवम्बर को है. इस अवसर पर यहाँ पेश है बाबा की वो कविताएं जो समाज को झकझोरती है. उसका अच्छा-बुरा सामने लाती है.
                                                                                                                 -सच्चिदानंद
अग्निबीज
तुमने बोए थे
रमे जूझते,
युग के बहु आयामी
सपनों में, प्रिय
खोए थे !
अग्निबीज
तुमने बोए थे

तब के वे साथी
क्या से क्या हो गए
कर दिया क्या से क्या तो,
देख–देख
प्रतिरूपी छवियाँ
पहले खीझे
फिर रोए थे
अग्निबीज
तुमने बोए थे
ऋषि की दृष्टि
मिली थी सचमुच
भारतीय आत्मा थे तुम तो
लाभ–लोभ की हीन भावना
पास न फटकी
अपनों की यह ओछी नीयत
प्रतिपल ही
काँटों–सी खटकी
स्वेच्छावश तुम
शरशैया पर लेट गए थे
लेकिन उन पतले होठों पर
मुस्कानों की आभा भी तो
कभी–कभी खेला करती थी !
यही फूल की अभिलाषा थी
निश्चय¸ तुम तो
इस 'जन–युग' के
बोधिसत्व थे;
पारमिता में त्याग तत्व थे।
विज्ञापन सुंदरी
रमा लो मांग में सिन्दूरी छलना...
फिर बेटी विज्ञापन लेने निकलना...
तुम्हारी चाची को यह गुर कहाँ था मालूम!

हाथ न हुए पीले
विधि विहित पत्नी किसी की हो न सकीं
चौरंगी के पीछे वो जो होटल है
और उस होटल का
वो जो मुच्छड़ रौबीला बैरा है
ले गया सपने में बार-बार यादवपुर
कैरियर पे लाद के कि आख़िर शादी तो होगी ही
नहीं? मैं झूठ कहता हूँ?
ओ, हे युग नन्दिनी विज्ञापन सुन्दरी,
गलाती है तुम्हारी मुस्कान की मृदु मद्धिम आँच
धन-कुलिश हिय-हम कुबेर के छौनों को
क्या ख़ूब!
क्या ख़ूब
कर लाई सिक्योर विज्ञापन के आर्डर!
क्या कहा?
डेढ़ हज़ार?
अजी, वाह, सत्रह सौ!
सत्रह सौ के विज्ञापन?
आओ, बेटी, आ जाओ, पास बैठो
तफसील में बताओ...
कहाँ-कहाँ जाना पड़ा? कै-कै बार?
क्लाइव रोड?
डलहौजी?
चौरंगी?
ब्रेबोर्न रोड?
बर्बाद हुए तीन रोज़ : पाँच शामें ?
कोई बात नहीं...
कोई बात नहीं...
आओ, आओ, तफ़सील में बतलाओ!
फसल
एक के नहीं,
दो के नहीं,
ढेर सारी नदियों के पानी का जादू:
एक के नहीं,
दो के नहीं,
लाख-लाख कोटि-कोटि हाथों के स्पर्श की गरिमा:
एक के नहीं,
दो के नहीं,
हज़ार-हज़ार खेतों की मिट्टी का गुण धर्म:
फसल क्‍या है?
और तो कुछ नहीं है वह
नदियों के पानी का जादू है वह
हाथों के स्पर्श की महिमा है
भूरी-काली-संदली मिट्टी का गुण धर्म है
रूपांतर है सूरज की किरणों का
सिमटा हुआ संकोच है हवा की थिरकन का!

गुलाबी चूड़ियाँ
प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,
सात साल की बच्ची का पिता तो है!
सामने गियर से उपर
हुक से लटका रक्खी हैं
\काँच की चार चूड़ियाँ गुलाबी
बस की रफ़्तार के मुताबिक
हिलती रहती हैं…
झुककर मैंने पूछ लिया
खा गया मानो झटका
अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा
आहिस्ते से बोला: हाँ सा’ब
लाख कहता हूँ नहीं मानती मुनिया
टाँगे हुए है कई दिनों से
अपनी अमानत
यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने
मैं भी सोचता हूँ
क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ
किस ज़ुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?
और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा
और मैंने एक नज़र उसे देखा
छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में
तरलता हावी थी सीधे-साधे प्रश्न पर
और अब वे निगाहें फिर से हो गईं सड़क की ओर
और मैंने झुककर कहा -
हाँ भाई, मैं भी पिता हूँ
वो तो बस यूँ ही पूछ लिया आपसे
वर्ना किसे नहीं भाएँगी?
नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूड़ियाँ!
अन्न पचीसी के दोहे
सीधे-सादे शब्द हैं, भाव बडे ही गूढ़

अन्न-पचीसी घोख ले, अर्थ जान ले मूढ़

कबिरा खड़ा बाज़ार में, लिया लुकाठी हाथ
बन्दा क्या घबरायेगा, जनता देगी साथ

छीन सके तो छीन ले, लूट सके तो लूट
मिल सकती कैसे भला, अन्नचोर को छूट

आज गहन है भूख का, धुंधला है आकाश
कल अपनी सरकार का होगा पर्दाफ़ाश

नागार्जुन-मुख से कढे साखी के ये बोल
साथी को समझाइये रचना है अनमोल

अन्न-पचीसी मुख्तसर, लग करोड़-करोड़
सचमुच ही लग जाएगी आँख कान में होड़

अन्न्ब्रह्म ही ब्रह्म है बाकी ब्रहम पिशाच
औघड मैथिल नागजी अर्जुन यही उवाच