शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

गुलामों जैसा जीवन जी रहे है बाल श्रमिक

बालक देश या समाज की महत्वपूर्ण संपत्ति होते हैं। बालक आने वाली पीढ़ी के सदस्य है, उनकी समुचित सुरक्षा, लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा व पर्याप्त विकास का दायित्व भी समाज का होता है। यही बच्चे देश के निर्माण में आधार स्तंभ बनते हैं। देश में बाल-कल्याण को प्रमुखता प्रदान करने के लिए देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जन्म दिवस को प्रति वर्ष बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। सबसे दुखद पहलू यह है कि विश्व के कुल बाल श्रमिकों का एक बड़ा भाग भारत में है। कल-कारखाने, गैराज, चाय दुकान सहित अनेक प्रकार के लघु व कुटीर उद्योंगो तथा घरेलू कामों में लगे हुए गुलामों जैसा जीवन जी रहे हैं। बाल श्रमिकों के बारे में कहा जाता है कि ये वे किशोर नहीं हैं  जो दिन के कुछ घंटे खेल और पढ़ाई से निकालकर जेब खर्च के लिए काम करते हैं, बल्कि ये वे मासूम बच्चे हैं जो वयस्कों की जिंदगी बिताने को मजबूर हैं। दस से अठारह घंटे काम कर कम पैसे में अधिक श्रम बेचते हैं।

गरीबी है मुख्य कारण

बाल श्रमिकों की समस्या के संदर्भ में सरकार की मान्यता है कि इसके मूल में गरीबी है। पर यह पूरी तरह सच नहीं है। सरकार यह मानकर चलती है कि केवल गरीबी के कारण ही लोग अपने बच्चाें को काम करने भेजते हैं। हालांकि समस्या के मूल कारणों में गरीबी से इनकार नहीं किया जा सकता, पर इस विषय पर हुए अनेक अनुसंधानों द्वारा यह तथ्य भी सामने आया है कि इसकी जड़ में गरीबी कम, इलाकों व नियोजकों के निहित स्वार्थ अधिक हैं। वयस्क की तुलना में बाल श्रम सस्ता पड़ता है। यह भी सच है कि बाल श्रमिक धरना प्रदर्शन या हड़ताल जैसे कार्य नहीं करते।

बाल श्रमिकों की दुर्दशा

कहा तो यह जाता है कि बाल्यावस्था स्वर्ग का आनंद प्रदान करती है, पर बाल श्रमिकों के संदर्भ में यह कहना सटीक होगा कि नरक बचपन के आसपास ही है। जानकारी के मुताबिक सैकड़ों बच्चों को रात में सोने के लिए झोपड़ी भी नसीब नही होती। ऐसे कई बच्चे रेलवे स्टेशन, बस स्टाॅप व सार्वजनिक भवनों में रात गुजारते हैं। ऐसे बच्चे अधिकतर ग्रामीण इलाकों से आते हैं।


एनजीओं की होती है महत्वपूर्ण भूमिका

इस समस्या से निपटने के लिए केवल कानून बना देना ही पर्याप्त नही है। बाल श्रमिकों के कल्याण व मुक्ति के लिए सरकार स्वयं सेवी संगठनों को वित्तीय सहायता भी प्रदान करती है। बावजूद स्थिति इतनी भयावह क्यों है इस पर मंथन करने की जरूरत है। एक सर्वेक्षण के बाद यह तथ्य उभर कर आया कि कोई भी एनजीओ बाल श्रमिकों के कल्याण के लिए प्राथमिकता के आधार पर काम नहीं करती। एक-दो एनजीओ है जिनकी प्राथमिकता में यह कार्य शामिल नहीं है। संविधान में 14 वर्ष तक मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान है। यदि इस कानून को ही सख्ती से लागू किया जाए तो बाल श्रमिकों की समस्या से काफी हद तक निपटा जा सकता है। अब तक बाल बाल श्रमिक समस्या को जो प्राथमिकता देनी चाहिए, वह प्रदान नहीं की गई है। उनकी स्थिति सुधारने के लिए जो योजनाएं बनती हैं, वह राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव में कागज पर ही रह जाती हैं।

सख्त है कानून

बाल श्रमिकों की रोकथाम के लिए कठोर कानून का प्रावाधान है, बावजूद इस पर लगाम नहीं लगाया जा सका है। जानकारी के अनुसार बाल श्रमिक से काम लेने के जुर्म में कम-से-कम दस हजार के जुर्माना के साथ सजा का भी प्रावधान है।

समाज को होना होगा जागरूक 

इस संबंध में गिरिडीह के श्रम अधीक्षक जनार्दन प्रसाद तांती ने कहा कि बाल श्रम पर रोक के लिए समाज को जागरूक होना होगा। कानून तो इसकी इजाजत नहीं देता और इसके लिए सख्त कानून भी है। पर केवल कानून से काम नहीं चलेगा। ऐसे बाल श्रमिकों का रिकॉर्ड विभाग के पास भी कम ही उपलब्ध होते हैं।

  • अभय वर्मा की रिपोर्ट

रविवार, 14 सितंबर 2014

मुक्तिबोध की कविता

जब दुपहरी जिन्दगी पर...


जब दुपहरी ज़िन्दगी पर रोज़ सूरज
एक जॉबर-सा
बराबर रौब अपना गाँठता-सा है
कि रोज़ी छूटने का डर हमें
फटकारता-सा काम दिन का बाँटता-सा है
अचानक ही हमें बेखौफ़ करती तब
हमारी भूख की मुस्तैद आँखें ही
थका-सा दिल बहादुर रहनुमाई
पास पा के भी
बुझा-सा ही रहा इस ज़िन्दगी के कारख़ाने में
उभरता भी रहा पर बैठता भी तो रहा
बेरुह इस काले ज़माने में
जब दुपहरी ज़िन्दगी को रोज़ सूरज
जिन्न-सा पीछे पड़ा
रोज़ की इस राह पर
यों सुबह-शाम ख़याल आते हैं...
आगाह करते से हमें... ?
या बेराह करते से हमें ?
यह सुबह की धूल सुबह के इरादों-सी
सुनहली होकर हवा में ख़्वाब लहराती
सिफ़त-से ज़िन्दगी में नई इज़्ज़त, आब लहराती
दिलों के गुम्बजों में
बन्द बासी हवाओं के बादलों को दूर करती-सी
सुबह की राह के केसरिया
गली का मुँह अचानक चूमती-सी है
कि पैरों में हमारे नई मस्ती झूमती-सी है
सुबह की राह पर हम सीखचों को भूल इठलाते
चले जाते मिलों में मदरसों में
फ़तह पाने के लिए
क्या फ़तह के ये ख़याल ख़याल हैं
क्या सिर्फ धोखा है ?...
सवाल है।

शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

चीरा चास : गांव से बन गया शहर पर नहीं बदली दशा

कंक्रीटों के जंगल के सहारे शहर फैल रहा है और गांव सिकुड़ने लगे हैं। आए दिन नए-नए गगनचुंबी इमारतें खड़ी हो रही हैं लेकिन नहीं कम हो रही है तो आम लोगों की मुश्किलें। ऐसा ही एक शहर है 
झारखंड का चास-बोकारो,जिसके बारे में बता रहे हैं राजेश सिंह देव।
 चीरा चास आज से एक दशक पहले एक गांव के नाम से जाना जाता था। इसके अगल-बगल भलसुंधा, गंधाजोर सहित कई गांव हैं, जो अब शहर में परिणत होने लगे हैं। चीरा चास तो शहर का आकार ले चुका है। यहां दर्जनों बड़े-बड़े अपार्टमेंट बन चुके हैं, दर्जनों निर्माणाधीन हैं और सैकड़ों आवासीय भवन और मार्केट बन चुके हैं, लेकिन इसकी दशा नहीं बदली। सड़क, नाली, पानी, बिजली, सफाई सहित कई समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं। चीरा चास नगर परिषद के एक नंबर वार्ड में है, यहां से नगर परिषद को अन्य वार्डों की तुलना में सबसे ज्यादा होल्डिंग टैक्स मिलता है। पर यहां के लोगों को पर्याप्त सफाई भी नसीब नहीं होती है। लोग नगर 
परिषद में सुविधा दिलाने की गुहार तो लगाते हैं, लेकिन उनकी सुनी नहीं जाती है।

 10 हजार से ज्यादा है आबादी 



 चीरा चास अब गांव नहीं रहा। चास के बगल में और भी कई गांव हैं, लेकिन चास से मिलता-जुलता नाम होने के कारण लोगों का झुकाव इस गांव की ओर बढ़ा। एक दशक में ही यहां बिल्डरों ने ऐसी मार्केटिंग की कि इसे शहर बना दिया। बीएसएल और राज्य सरकार से सेवानिवृत अधिकारी और कर्मचारियों के अलावा अधिकतर साधन संपन्न लोगों ने यहां जमीन या अपार्टमेंट खरीदा है। यहां के अपार्टमेंट और आवासीय भवन देखने में किसी महानगर से कम नहीं दिखते, लेकिन समस्याएं किसी झोपड़पट्टी या मुहल्ले से कम नहीं है।

 आवासीय परिसरों में रोड न नाली

 चीरा चास में जो पुरानी सड़क है वह कई जगहों पर टूटी फूटी है। सड़क किनारे नाली भी नहीं बनी है। इसके अलावा जितने नए आवासीय भवन और अपार्टमेंट बन रहे हैं। वहां आने जाने के लिए सड़क भी नहीं बनी। गिली मिट्टी और कीचड़ के कारण उन आवासों में जाना काफी मुश्किल भरा काम नजर आता है। नगर परिषद इसके लिए कोई प्लानिंग नहीं कर रही है। चीरा चास मेन रोड में भी एक चौथाई सड़क पर नाली नहीं है। इसके कारण बारिश के दिनों में सड़क पर पानी जमा हो जाता है और लोगों को आने जाने में काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है। नाली नहीं होने के कारण गांव के पुराने घरों में पानी घुस जाता है।

 पानी और बिजली की है गंभीर समस्या

 चीरा चास में नगर परिषद द्वारा सप्लाई पानी की व्यवस्था नहीं की गई है। यहां लोग अपने घरों के बोरिंग पर निर्भर हैं। बिजली की समस्या भी गंभीर है। दिन-दिन भर बिजली नहीं रहती है। ऐसे में जिस दिन बिजली नहीं रहती है, उस दिन वीआईपी लोगों के यहां मोटर भी नहीं चलता है और लोग पानी के लिए काफी परेशान रहते हैं। ठेला में पानी बेचने वालों को पैसा देकर चापानलों का पानी मंगाते हैं।