मंगलवार, 24 सितंबर 2013

कब्रिस्तान में मकबरे नहीं तो क्या होंगे मकान..


दिल पे मत ले यार/ अमित राजा


कुछ लोगों की बाजीगरी $गज़ब की है, मगर शास्त्रीनगर में उनकी नहीं चलती, वरना कब्रिस्तान में मकबरों की जगह मकान होते



 
शहर में उस्तादों की कमी नहीं है। यहां जमीन के कारोबार से जुड़े कुछ लोग तो अव्वल दर्जे के बाजीगर हैं। जीवन देने वाले नदी-नालों को नहीं छोड़ते तो मुर्दों की भला क्यों फिक्र करेंगे। लेकिन, उनकी बाजीगरी शास्त्रीनगर में आकर पस्त हो जाती है। क्योंकि शास्त्रीनगर की जिंदादिली मौके-दर-मौके दिखती रही है। मोहल्ले के मजबूत जिगर का भी जवाब नहीं। सो, मोहल्ले ने उस्तादों की बाजीगरी पर वायरस डाल दिया। वरना, शहर के कुछ उस्ताद अपने शागिर्दों के साथ मिलकर मैदान में श्मशान और कब्रिस्तान में मकान बनवा डालते। कुछ इसी मकसद से एक बार फिर उस्तादों ने दो दिन पहले किस्मत आजमाया था। कब्रिस्तान व श्मशान घाट की घेराबंदी करवा दी। इस जुगत-जुगाड़ी से मुर्दों के बिस्थापित होने का खतरा था। साथ ही अभी पितरों को तर्पण करने के मौजूदा शुभ दिनों में मोहल्लेवासियों को दूसरी जगह खोजनी पड़ती। यह मुश्किलों भरा होता। सो, मोहल्ला उठा और मुर्दों को बिस्थापित होने से बचाने के लिए कब्रिस्तान और श्मशान घाट को मुक्त करा दिया।
कुत्ता नहीं था नगर सेठ का मोती
भला नाम में क्या रखा है। सेक्सपीयर ने भी यह बात कही है। बहरहाल, कभी-कभी स्वामी अपने कुत्तों का नाम इंसानों से मिलते-जुलते नामों की तरह रख लेता है तो कभी अपने बेटों के नाम कुत्तों के नामों की तरह मोती या टॉम रखता है। बात पुरानी है, पर है दिलचस्प। ढाई दशक पहले गिरिडीह में एक नगर सेठ समाजवादी विचारों से लैस हुआ करते थे। वे हाथ खोलकर नेताओं को चंदे भी देते थे। एक रोज कुछ लोग सामाजिक कामों से चंदा के लिए पहुंचे। नगर सेठ ने हॉल में बैठे-बैठे ऊपर के कमरों की ओर देखकर जोर से ‘मोती’ या ‘टॉम’ सरीखे किसी नाम को आवाज दी। इसपर चंदे के लिए पहुंचे लोगों ने हाथ जोड़ लिया। कहा-सेठ जी भले ही चंदा न दें, मगर अपने कुत्ते को तो नहीं बुलवाएं। सेठ जी मुस्कुराने लगे, कहा- मैं अपने बेटे को प्यास से टॉम बुलाता हूं।
 
साहब ने कर दी मैनेजर की फजीहत
लोगों को सरकारी स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराने वाले एक मैनेजर थोड़े ‘कलरफुल’ हैं। रंगीनियां उनके जीवन का अहम हिस्सा है। लेकिन, जिले के बड़े साहब भी खासे कडक़ हैं। स्वास्थ सुविधाओं में अनियमितता उन्हें कतई पसंद नहीं। हाल में बड़े साहब को स्वास्थ्य सुविधाओं की गड़बडिय़ों की थोड़ी शिकायत मिली तो वे निरीक्षण के लिए पहुंच गए। मैनेजर को नहीं देखा तो हत्थे से कबड़ गए। मैनेजर के मोबाइल पर फोन घुमाया, मगर उधर से ‘मरा’ सा हलो भी नहीं निकला। इसपर बड़े साहब सीधे उनके घर पहुंच गए। दरवाजा खुला था और मैनेजर अकेले जाम-बेजाम हो रहे हैं। बड़े साहब को सामने देखा तो मैनेजर का नशा काफूर हो गया। उन्होंने बहुत गिड़गिड़ाया, मगर बड़े साहब डांटते रहे। लेकिन, ड्यूटी आवर के बाद की जिंदगी मानकर बड़े साहब ने उन्हें बख्श दिया। 
 
और अंत में
जिले की सियासत में इन दिनों कैडरों का महत्व बढ़ गया है। कभी हाशिए पर रहे विभिन्न पार्टियों के कैडर को नेता चुनाव नजदीक देख जबर्दस्त तव्वजो देने लगे हैं। मौके की नजाकत को देखते हुए कुछ नेता तो अब कार्यकर्ताओं के नाजो नखरे भी उठाने लगे हैं। 

रविवार, 15 सितंबर 2013

करमा के गीतों में हड़प्पा सभ्यता की महक

झारखंड के रग-रग में समाया व गिरिडीह जिले में रचा बसा प्रकृति पर्व करमा यूं तो भाई-बहन के अद्भूत प्रेम व सौंदर्य का प्रतीक है, पर इसके गीतों की सरलता, सहजता, समरसता व विशिष्टता इसे उत्कृष्ट दर्जा दिलाती है। जिले के आदिवासी समुदाय सहित अन्य समुदायों की युवतियों के जरिए गाए जा रहे गीतों में राज्य की सभ्यता व संस्कृति की सोंधी महक झलकती है। इतना ही नहीं इस पर्व के गीतों में प्राचीन कालीन सिंधु घाटी व हड़प्पा सभ्यता का भी जिक्र मिलता है। युवतियों के जरिए जावा जगाते हुए समूह में गाए जाने वाले एक गीत की पंक्ति देखिए- कइसे जे गेलंय भईया सिंधु के पार गो...तोर बिना कांदेय बहिन हड़प्पें झराय...इस गीत में हड़प्पा सभ्यता के विध्वंस का जिक्र  है। एक अन्य गीत में उज्जैन का भी जिक्र है- ताहि तरें भेंटइलन गेहुमन सांप रे छाडु-छाडु गेहुमन उजइनी के घाट...। जानकारों के मुताबिक इन गीतों में व्यक्त भावनाएं महज परंपरा निर्वाह की औपचारिकताएं नहीं, बल्कि झारखंड की परंपरा व रीति-रिवाजों का एक आईना भी है। करमा पर्व झारखंडी संस्कृति की पहचान है। इस अवसर पर गाए जाने वाले गीत सहज हैं। युगल किशोर की एक रिपोर्ट


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करमा के पर्व में गीतों का खास महत्व है। एक सह्रश्वताह तक चलने वाले इस त्योहार में महिलाएं रोज कम से कम दो-तीन बार जावा जगाती हैं। इस दौरान समूह में नाचते हुए गाए जाने वाले गीतों का कोई रिकार्ड नहीं है। ये गीत वर्षों से महिलाओं के कंठों में बसा हुआ है। बस, प्रतिवर्ष सह्रश्वताहभर की ट्रेनिंग करमा के अवसर पर चलती है। इन गीतों के गीतकारों का भी कोई अता-पता नहीं है।

जावा उठाव के संग होती है शुरुआत

जावा उठाव के साथ गांवों में लोक महापर्व कर्मा शुरू हुआ। प्रकृति के प्रति मानवीय जुड़ाव व भाई-बहनों के अटूट पे्रम पर आधारित कर्मा के गीतों से गांव गूंजने लगे हैं। कर्मा झारखंड के गांवों में रजने-बसने वाला
सर्वाधिक लोकप्रिय पर्वों में एक है। अमूमन गांवों में सात दिन तक चलने वाला यह पर्व लोकगीतों व नृत्यों से वातावरण को खुशनुमा बनाता है। जावा उठाव के साथ ही युवतियां सुबह-शाम जावा जगाने को लेकर जावा जागरण गीत गाती है। युवतियों के जावा जागरण गीतों में मानव समुदाय के प्रकृति के प्रति जुड़ाव व भाई-बहनों के पवित्र प्रेम का संबंध झलकता है। गांवों में सुबह-शाम कर्मा के गीतों की गूंज से गांव गुंजायमान हो रहे हैं। सात दिन तक चलने वाला कर्मा पर्व की गांवों में बहरहाल धूम मची है।

 करम गीतों में राम, लक्ष्मण और हनुमान

करमा आदिवासियों के महानतम पर्वों में एक है। यह सिर्फ आदिवासियों की ही नहीं, बल्कि झारखंड संस्कृति की समृद्ध पहचान है। आदिवासी बालाओं द्वारा मनाया जाने वाला यह पर्व कई कई मायने में महत्वपूर्ण है। प्रकृति के प्रति अगाध प्रेम के साथ भाई-बहनों के पवित्र रिश्तों की झलक करमा के गीत व नृत्य में परिलक्षित होता है। बालाएं करमा गीत में सृष्टि सृजनकर्ता से लेकर राम, लक्ष्मण और हनुमान तक का स्मरण कराते हैं। आदिवासियों के धार्मिक ग्रंथों और लोककथाओं के अनुसार करमा पर्व का सृजन पिलचू बूढ़ी (प्रारंभिक मानव माता) ने अपनी बेटियों के लिए किया था। तब से बहनें अपने भाइयों के रक्षार्थ और प्रकृति के पूजन के रूप में करमा करती हैं।


शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

जो बात यहां है वो कहीं भी नहीं...

काठमांडो...यह नाम सुनते ही मेरे मन में उत्साह भर आता है। इसकी रोमांचकारी यात्रा मुझे शुरू से ही आकर्षित करती रही है। आसमान को छूते पहाड़ और दुर्गम घाटियों के बीच से गुजरना हर बार एक नया रोमांच भर देता है। अगर आप ड्राइवर की पीछे वाली सीट पर बैठे हों
, तो रोमांच और दुगुना हो जाता है। कभी-कभी लगगा है कि बस अब पहाड़ से टकरा जाएगी। ठंडी हवाओं के झोंके से आंख लग गई। अचानक ड्राइवर ने ब्रेक लिया और आप हड़बड़ाकर उठे, देखा- सामने हजारों फीट गहरी खाई... लेकिन बस फटाक से मुड़ गई। बलखाती पहाड़ी सडक़ पर अब यह ऊपर की ओर जा रही है। काठमांडो अब तक कई बार जा चुका हूं लेकिन हर बार यह यात्रा नया रोमांच पैदा करती है। मई २०१३ की यात्रा भी ऐसी ही थी। 
बस जैसे ही काठमांडो के ललितपुर पहुंची, ठंडी ताजी हवाओं ने हमारा स्वागत किया। ललितपुर पहाड़ की एक सबसे ऊंची चोटी पर है। नीचे लंबी घुमावदार सडक़ और बादलों के छोटे-छोटे टुकड़े तैर रहे थे। बादलों के ऐसे ही टुकड़े बस की खिडक़ी के पास तैरने लगे थे। हाथ निकालकर उन्हें छुआ तो हाथ गीला हो गया। तकरीबन दस घंटे के सफर की थकान मानों पल भर में गायब हो गई और मन में एक नई ऊर्जा का संचार हो गया। 
हमारे यहां मैथिली में एक कहावत है। सुखटीक बनिज आ पशुपतिक दर्शन। अर्थात एक पंथ दो काम। काठमांडो जाइए तो पशुपतिनाथ महादेव का दर्शन कीजिए और सुखटी (सूखी)मछली का आनंद उठाइए। सो अगले दिन शुक्रवार को हमें पशुपतिनाथ का दर्शन करना था।
शुक्रवार को दिन भर खूब घूमा। पशुपतिनाथ मंदिर, मृग स्थली, दक्षिणेश्वर काली, सिंह दरबार .. दिन भर भटकता रहा। थक गया पर मन नहीं भरा। बचपन से कई बार यहां आता रहा हूं। थकता रहा हूं। थकने के बाद भी एक नया उत्साह, एक नई ऊर्जा का संचार हमारे मन में होता है। आसमान की बुलंदियां छूते पहाड़ और इनके बीच से निकलती बागमती नदी दोनों को निहारने में बड़ा बजा आता है। शायद पहाड़ों की अदम्य जीजीविषा के कारण हीआज तक इन्हें कोई झुका नहीं पाया है। और इनके बीच से निकलती बागमती की जिद के कारण ही इन्हें आज तक कोई रोक नहीं पाया है। काफी अद्भुत लगता है यह दृश्य।
-सच्चिदानंद