दिल पे मत ले यार/ अमित राजा
कुछ लोगों की बाजीगरी $गज़ब की है, मगर शास्त्रीनगर में उनकी नहीं चलती, वरना कब्रिस्तान में मकबरों की जगह मकान होते।
शहर में उस्तादों की कमी नहीं है। यहां जमीन के कारोबार से जुड़े कुछ लोग तो अव्वल दर्जे के बाजीगर हैं। जीवन देने वाले नदी-नालों को नहीं छोड़ते तो मुर्दों की भला क्यों फिक्र करेंगे। लेकिन, उनकी बाजीगरी शास्त्रीनगर में आकर पस्त हो जाती है। क्योंकि शास्त्रीनगर की जिंदादिली मौके-दर-मौके दिखती रही है। मोहल्ले के मजबूत जिगर का भी जवाब नहीं। सो, मोहल्ले ने उस्तादों की बाजीगरी पर वायरस डाल दिया। वरना, शहर के कुछ उस्ताद अपने शागिर्दों के साथ मिलकर मैदान में श्मशान और कब्रिस्तान में मकान बनवा डालते। कुछ इसी मकसद से एक बार फिर उस्तादों ने दो दिन पहले किस्मत आजमाया था। कब्रिस्तान व श्मशान घाट की घेराबंदी करवा दी। इस जुगत-जुगाड़ी से मुर्दों के बिस्थापित होने का खतरा था। साथ ही अभी पितरों को तर्पण करने के मौजूदा शुभ दिनों में मोहल्लेवासियों को दूसरी जगह खोजनी पड़ती। यह मुश्किलों भरा होता। सो, मोहल्ला उठा और मुर्दों को बिस्थापित होने से बचाने के लिए कब्रिस्तान और श्मशान घाट को मुक्त करा दिया।
कुत्ता नहीं था नगर सेठ का मोती
भला नाम में क्या रखा है। सेक्सपीयर ने भी यह बात कही है। बहरहाल, कभी-कभी स्वामी अपने कुत्तों का नाम इंसानों से मिलते-जुलते नामों की तरह रख लेता है तो कभी अपने बेटों के नाम कुत्तों के नामों की तरह मोती या टॉम रखता है। बात पुरानी है, पर है दिलचस्प। ढाई दशक पहले गिरिडीह में एक नगर सेठ समाजवादी विचारों से लैस हुआ करते थे। वे हाथ खोलकर नेताओं को चंदे भी देते थे। एक रोज कुछ लोग सामाजिक कामों से चंदा के लिए पहुंचे। नगर सेठ ने हॉल में बैठे-बैठे ऊपर के कमरों की ओर देखकर जोर से ‘मोती’ या ‘टॉम’ सरीखे किसी नाम को आवाज दी। इसपर चंदे के लिए पहुंचे लोगों ने हाथ जोड़ लिया। कहा-सेठ जी भले ही चंदा न दें, मगर अपने कुत्ते को तो नहीं बुलवाएं। सेठ जी मुस्कुराने लगे, कहा- मैं अपने बेटे को प्यास से टॉम बुलाता हूं।
साहब ने कर दी मैनेजर की फजीहत
लोगों को सरकारी स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराने वाले एक मैनेजर थोड़े ‘कलरफुल’ हैं। रंगीनियां उनके जीवन का अहम हिस्सा है। लेकिन, जिले के बड़े साहब भी खासे कडक़ हैं। स्वास्थ सुविधाओं में अनियमितता उन्हें कतई पसंद नहीं। हाल में बड़े साहब को स्वास्थ्य सुविधाओं की गड़बडिय़ों की थोड़ी शिकायत मिली तो वे निरीक्षण के लिए पहुंच गए। मैनेजर को नहीं देखा तो हत्थे से कबड़ गए। मैनेजर के मोबाइल पर फोन घुमाया, मगर उधर से ‘मरा’ सा हलो भी नहीं निकला। इसपर बड़े साहब सीधे उनके घर पहुंच गए। दरवाजा खुला था और मैनेजर अकेले जाम-बेजाम हो रहे हैं। बड़े साहब को सामने देखा तो मैनेजर का नशा काफूर हो गया। उन्होंने बहुत गिड़गिड़ाया, मगर बड़े साहब डांटते रहे। लेकिन, ड्यूटी आवर के बाद की जिंदगी मानकर बड़े साहब ने उन्हें बख्श दिया।
लोगों को सरकारी स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराने वाले एक मैनेजर थोड़े ‘कलरफुल’ हैं। रंगीनियां उनके जीवन का अहम हिस्सा है। लेकिन, जिले के बड़े साहब भी खासे कडक़ हैं। स्वास्थ सुविधाओं में अनियमितता उन्हें कतई पसंद नहीं। हाल में बड़े साहब को स्वास्थ्य सुविधाओं की गड़बडिय़ों की थोड़ी शिकायत मिली तो वे निरीक्षण के लिए पहुंच गए। मैनेजर को नहीं देखा तो हत्थे से कबड़ गए। मैनेजर के मोबाइल पर फोन घुमाया, मगर उधर से ‘मरा’ सा हलो भी नहीं निकला। इसपर बड़े साहब सीधे उनके घर पहुंच गए। दरवाजा खुला था और मैनेजर अकेले जाम-बेजाम हो रहे हैं। बड़े साहब को सामने देखा तो मैनेजर का नशा काफूर हो गया। उन्होंने बहुत गिड़गिड़ाया, मगर बड़े साहब डांटते रहे। लेकिन, ड्यूटी आवर के बाद की जिंदगी मानकर बड़े साहब ने उन्हें बख्श दिया।
और अंत में
जिले की सियासत में इन दिनों कैडरों का महत्व बढ़ गया है। कभी हाशिए पर रहे विभिन्न पार्टियों के कैडर को नेता चुनाव नजदीक देख जबर्दस्त तव्वजो देने लगे हैं। मौके की नजाकत को देखते हुए कुछ नेता तो अब कार्यकर्ताओं के नाजो नखरे भी उठाने लगे हैं।
जिले की सियासत में इन दिनों कैडरों का महत्व बढ़ गया है। कभी हाशिए पर रहे विभिन्न पार्टियों के कैडर को नेता चुनाव नजदीक देख जबर्दस्त तव्वजो देने लगे हैं। मौके की नजाकत को देखते हुए कुछ नेता तो अब कार्यकर्ताओं के नाजो नखरे भी उठाने लगे हैं।
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