गुरुवार, 3 सितंबर 2015

जेहन में बसे गांव के नाटक

गांव की चौबटिया से 

कुमार राहुल
एक नाटक का रिहर्सल करते बच्चे।

मेरे मन में एक गांव अब भी बसा है, जो गाहे-बगाहे मुङो हंसाता है, रुलाता है. हम चाह कर भी उसे नहीं भूल पाते. मन के किसी कोने में शैतान बच्चे की तरह दुबका, एक आंख से देखता यह गांव दुर्गा पूजा, छठ, होली से गुलजार है. दुर्गा पूजा है, तो नाटक है, होली है, तो नाटक के पात्र हैं. ऐसे पात्र जो गांव को गांव बनाये रखते हैं. मैं पहले दसहरा में होने वाले नाटकों में राजा बन जाता था, तो कभी चोर. कभी डकैत बन जाता था, तो कभी सिपाही. कभी आंदोलन छेड़ कर व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की बात करता था. पर अब मैं कुछ भी नहीं बन पाता. मैं खुद के द्वारा बनाये गये खोल में दुबक गया हूं. पर पता नहीं इस बार बेसब्री से मन में बसा यह छोटा शैतान बच्चे-सा गांव बुला रहा है मुङो. वैसे तो गांव के बारे में आधी-अधूरी जानकारी मिलती रहती है. पता चला है कि जो भौजी बिना घूंघट के घर से बाहर नहीं निकलती थी, वह जनप्रतिनिधि बन गयी है. स्वच्छता अभियान चल रहा है. मुङो गांव में स्वच्छता अभियान चलाने की बात सुनते ही श्रीलाल शुक्ल की राग दरबारी उपन्यास की याद आ जाती है. गांव की पगडंडी से सुबह-शाम चलना मतलब दर्जनों लोगों का सैल्यूट लेना.. मैं देखना चाहता हूं कि स्वच्छता अभियान के बाद क्या यह दृश्य जिंदा है? गरमी में मुङो सीतलपाटी की बरबस याद आ जाती है. वैसे स्वच्छता अभियान और शीतलपाटी की कोई तारतम्यता नहीं है, लेकिन मन है कि दोनों बातें एक साथ याद आ जाती है. पता चला है कि जिस चौर (गीली जमीन वाला क्षेत्र) की कृपा से शीतलपाटी मिल जाया करती थी, वहां से एनएच गुजरने लगा है. बगल में मॉल खुलने की बात भी किसी ने बतायी थी. मॉल खुलने की बात से मुङो रामलगन सब्जी वाले, पाठक काका की सब कुछ एक ही जगह मिलने वाली दुकान, बिजली पान दुकान, पाही वाले का आटा चक्की और कमला पुल से सटे नाचने वाले (नटुआ) मोची की याद आ जाती है. यह भी याद आती है कि कैसे छोटी लाइन की ट्रेन गायब होने लगी और अब इस धंसती हुई पटरी पर बुलेट ट्रेन दौड़ेगी! वैसे तो मन में बसे गांव में एक नदी भी है, जो कभी कल-कल बहती थी, लेकिन मेरे मन की तरह यह नदी भी मरने लगी है. नदी होना एक पूरी सभ्यता का होना/बसना है. पर दूसरे रूप में सोचें तो मन की धारा उस नदी की तरह तो है ही जो बार-बार कमला-कोसी के रूप में निरंतर बहती रहती है और यही निरंतरता मुङो गांव से जोड़े रखती है. वैसे पता चला है कि गांव के किसानों के लिए दिल्ली-पटना ने कई योजनाओं की घोषणा कर दी है. इससे गांव ‘नदिया के पार’ की तरह नहीं ‘दिल वाले दुलहनिया ले जायेंगे’ टाइप हो जायेगा. सरकार ने गांव बदलने के लिए कमर कस ली है. अब पलटू बाबू रोड नहीं, वाया बाइपास गांव पहुंचना होगा. सोचता हूं कि एक बार गांव हो आउं और अंधेर नगरी चौपट राजा नाटक जरूर खेलूं.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें