शनिवार, 28 अगस्त 2010

मंगलेश डबराल की कविता

 इन ढलानों पर
इन ढलानों पर वसंत आएगा
हमारी स्मृति में
ठंड से मरी हुई इच्छाओं को
फिर से जीवित करता
धीमे-धीमे धुन्धुवाता खाली कोटरों में
घाटी की घास फैलती रहेगी रात को
ढलानों से मुसाफिर की तरह
गुजरता रहेगा अंधकार
चारों ओर पत्थरों में दबा हुआ मुख
फिर से उभरेगा झांकेगा कभी
किसी दरार से अचानक
पिघल जायेगा जैसे बीते साल की बर्फ
शिखरों से टूटते आयेंगे फूल
अंतहीन आलिंगनों के बीच एक आवाज
छटपटाती रहेगी
चिड़िया की तरह लहूलुहान 

श्रोत : फेसबुक

बुधवार, 25 अगस्त 2010

भवनाथ झा की मैथिली कहानी

                                                                                संवेदना

                                                                                                                                               - भवनाथ झा
लगभग बीस वर्षक शोधक उपरान्त डा० सिन्हाकें मनुक्खक मस्तिष्कमे संवेदनाक भौतिक आ रासायनिक संरचनाक पता लागि गेल रहनि। स्कैनिंश मशीन, कम्प्यूटर अल्ट्रासाउण्ड, एकर सभक विकासक बाद एहि क्षेत्रमे शोधमे बड़ सहायता भेल छलनि आ एकैसम शताब्दीमे ओ निश्चित रूपसँ खोज कए नेने छलाह जे मानवक कपारक सामने सेरीव्रमवला भागमे एकटा गट्‌ढा छैक जाहिमे न्यूरॉन कोशिकाक एक समूह जखनि एकटा विशेष तरल पदार्थसँ भीजैत अछि, तखनि ओकरामे संवेदना जन्म लैत छैक।
डा० सिन्हा वैज्ञानिक छथि। हुनक प्रयोगशाला अमेरिकामे छनि जतए सभ तरह सुविधा छनि, राजकीय सहयोग छनि, संरक्षण छनि। अनेक सहयोगी छथिन। विज्ञानक विभिन्न शाखाक अधिकारी विद्वान्‌ हुनक एहि उपयोगी शोधसँ जुड ल छथि। अधिक काल ओहि प्रयोगशालाक सभागारमे संगोष्ठी भेल करै-ए। शोधक बीचमे आएल कोनो बाधापर विचार, विभिन्न शाखाक विद्वानक मन्तव्य, शोधक प्रगतिपर प्रतिवेदन आदि ले' ई संगोष्ठी सप्ताहमे कम सँ कम एक दिन होइते रहैए, मुदा आजुक गोष्ठी एकटा विशेष समस्याक समाधान कतबा ले' राखल गेल छल।
बात ई भेल रहै जे एक इन्टरनेट पत्रिका डा० सिन्हा शोधकार्यक संबंधमे लम्बा-चौड़ा टिप्पणी कएने रहय जे संवेदना जे कि बेकार वस्तु थिक, ओकर भौतिक आ रासायनिक संरचना पर शोध करबा ले' लाखो डालर रुपया पानि जकाँ बहाओल जा रहल अछि। संवेदना एकटा व्यसन थिक, जे विकासमे बाधक अछि। संवेदना एकटा जंजाल थिक, जकर बन्धन कटलाक बादे के ओ चिडै जकाँ उन्मुक्त आकाश में उडि. पाओत। तें एहन विषय पर शोध तत्काल बंद कएल जाए। इंटरनेट पत्रिकाक एहि टिप्पणी पर विभिन्न देश सँ सहमति ई-मेल सँ आएल रहैक आ तें अमेरिका सरकार डा० सिन्हा सँ हुनक मन्तव्य मँगने रहनि।
सभागार खचाखच भरल छल। एल०सी०डी० स्क्रीन डा० सिन्हाक लैपटॉपसँ जोड ल रहए जाहिपर मानव मस्तिष्कक संवेदनाक स्थानक चित्र चमकि रहल छल।
डा० सिन्हा बीज भाषणमे सोझे अपन शोधक उपयोगिता पर अएलाह- ''मानव जाहि गति सँ विकास कए रहल अछि, ओकरा देखैत कहल जा सकै-ए जे ओ सुपरमैनक रूप में बदलि जाएत आ ओकरामे बाँकी तँ सभ किछु मानवे जकाँ रहतैक केवल संवेदना नै रहतै। आ फेर ओ अतिमानव संवेदनाक खोजमे अपन समस्त उर्जा झोंकि देत। तें हम एहि संवेदनाक रासायनिक आ भौतिक संरचनाक खोज कए ओहि अतिमानवक पीढ ीके दिय चाहैत छी जे भविष्यमे मानवीय संवेदनाक ओ रसायन प्रयोगशाला मे बनाए लेतैक।'
एहि बीज भाषण पर मत-मतान्तर उपस्थित भेल। केओ एकर नैतिक पक्ष पर प्रश्न उठाओल तँ केओ कहलनि जे एके कालमे मानव आ अतिमानव दुनूक पीढ़ी आस्तित्वमे रहत तें ओ दुनू एक दोसरा सँ तालमेल कए अपन विकास कए लेत। एही मत मतान्तरक बीच एकटा वैज्ञानिक जे अपन मन्तव्य देलनि ओ डा० सिन्हाकें छू देलकनि। ओ कहने रहथिन जे मानव आ अतिमानव एक सँगे अस्तित्वमे नै रहि सकत, जेना बाघ बिलाडि के देखिते खा जाइत अछि, तहिना ओ अतिमानव अपन सम्पर्कमे अबिते मानवक अस्तित्व मेटाए देत। दोसर बात ई जे संवेदनाक ओहि रसायनक ततेक जटिल संरचना अछि जकरा लैबमे बनाओल नै जा सकत आ जँ बनियो जाएत तँ ओकर सफलताक जाँच केना होएत, किएक तँ मानवीय संवेदनाक एकोटा नमूना रहबे नै करतै। तें एना कएल जाए जे मनुष्यसँ भिन्न कोनो प्राणीमे एहि संवेदनाक रसायन सुरक्षित कएल जाए, जाहि सँ ओ अतिमानव ओहि प्राणीसँ ओ रसायन शल्य-क्रिया द्वारा लए लेताह। एहि प्रकारें मानवीय संवेदना सुरक्षित रहत।''
डा० सिन्हा अपन आवास पर घुरलाह। तावत बेसी राति भए गेल रहैक। सभ सूति रहल छलनि। कॉल कएलनि तँ नोकर आँखि मीड ैत गेट खोलि देलकनि डा० सिन्हा अपन कोठली दिस बढलाह। नोकर के सूति रहबा ले' कहि क'। भोजन करैत काल आ निर्णय लेलनि जे एहन जानवरक खोज कएल जाए जकरामे संवेदना नहि रहैक आ ओकरा पर एहि रसायनक प्रयोग कएल जाए।
हुनक नींद बिला गेल रहनि। रातुक बारह बाजि रहल छलैक तैयो एखनि काज आगाँ बढ़एबाले' ओ उत्सहित छलाह। सभसँ पहिने ओ ई देखए चाहैत छलाह जे कोन परिस्थिति में मानव संवेदना के छोडि दैत अछि। डा० सिन्हा लैपटॉप खोललनि आ इंटरनेट पर 'संवेदनहीनता' शब्द लीखि सर्च करए लगलाह। सर्चइंजन दस हजार रिजल्ट देलनि आ तकर बादो बहुत सर्च बाँकिए छलैक।
ऊपर सँ किछु पेज खोललनि। पहिल पृष्ठ छल नेताक संवेदनहीनता, जे बाढि मे भसिआइत जनताक लेल किछु नै कएने रहथि। दोसर पृष्ठपर एकटा गरीब बाप द्वारा बेटीक हत्या कए देबाक घटना छल, जाहि में संवेदनहीनता शब्द रहैक। तेसर पेजपर एकटा घटनाक समाचार रहैक जे स्कूल जाइत काल एकटा बच्चा सड क कातक नालामे गरदनि धरि फँसल दू घंटा तक चिचिआइत रहल, मुदा केओ ओकरा निकालक नै। चारिम पेजपर गर्भस्थ कन्याक हत्याक समाचार छल। डा० सिन्हा एहि रिजल्टक सभ पृष्ठकें देखब जरूरी बुझएलनि तें ओ अपन एकटा सहयोगीकें सभटा पेज डाउनलोड करबाक आदेश ई-मेल सँ दए सूति रहलाह।
संसार भरिमे जे समाचार छपल छलैक, आ जे किताब, ब्लॉग सभ लिखाएल छलैक आ ओहिमे जत' जत' संवेदनहीनता शब्द छलैक, ओकर सर्वेक्षण आ निष्कर्ष डा. सिन्हा कें चौका देलकनि। ओ एहि सँ निष्कर्ष निकाललनि जे जे मनुक्ख विकास करए चाहैत अछि, ओकरा भोर सँ आधा राति धरि खटए पड' छैक आ तें ओकर संवेदना बिला रहलैए। एकर विपरीत बहुत मानव एहन अछि, जकरा कोनो तरहक अभाव संवेदनहीन बना रहलैए।
तखनि डा. सिन्हा शोधक आरम्भिक चरणमे वरद, गदहा आ वानर एहि तीन स्पेसीजके चुनलनि। वरद खटैनीक साकार मूर्ति थिक। भोरे सँ ओकरो खेतमे, गाड़ीमे, कोल्हुमे जोति देल जाइत छैक। डा. सिन्हाकें पूरा भरोस छलनि जे जँ खटैनी सँ संवेदना बिलाइत अछि तँ वरदमे संवेदना नहिंए होएत। गदहा सेहो एही कोटिमे अछि। धोबीक कपड ा उघैए, जाँत-सिलौट लदने दुआरिए दुआरि घुमैए आ पैघ-पैघ शहरमे जतए गलीमे कोनो गाड ी नै जा पबैत छै, ओतए गदहे सँ ईटा, बालू, गिट्टी, सीमेंट आ घर भरबा ले' माँटि उघाओल जाइत अछि तें खटैनी क कारणे गदहा में तँ संवेदना नहिए होएत।
आ जँ अभावक कारणें संवेदना बिलाइत अछि, तँ वानर अवश्य संवेदनाशून्य होएत। वानरके ने तँ घर छैक आ ने खेत, ने ओ मांसभक्षी थिक, जे कतहु ककरो हत्या कए भूख मेटाए लेत। गाछपर रहैत अछि; फल खाइत अछि। जंगलो तँ धीरे धीरे कटाइए रहलै-ए। तखनि तँ अबस्से वानरमे संवेदना नहि होएत।
डा. सिन्हा एहि तीनू स्पेसीजपर अध्ययन करबा ले' देश-विदेश अनेक वैज्ञानिकके ई-मेल कएलनि आ ओकर रिजल्ट अएबा धरि अपनहु गाम घुरि अएबाक कार्यक्रम बनबए लगलाह। आ अपन एकटा सहयोगी पर प्रयोगशालाक भार दए दोसरे दिन पत्नी आ नोकरक संग स्वदेश विदा भए गेलाह।
हुनक गाममे माता-पिता रहैत छथिन। पर्याप्त खेत छनि। पुरना बँगला छनि। दूरा पर दू जोड ा वरद, गाय, मँहीस छनि। सभटा पर नोकर-चाकर लागल रहै छनि। पाँच किलो चाउर एक साँझ में सीझैत छनि। ओ गाम पहुँचलाह तँ उत्सव मनाओल गेल; भरि गामके नोंतल गेल। बाप-माय कें तँ जेना धरती पर पयरे नै पडि रहल छलनि।
ओहो विदेश सँ आएल रहथि; नोकर सभ इनामक लोभमे हिनके आगु-पाछु करय। प्रात भेने इहो सभकें बजाए इनाम बाँटए लगलाह तँ कपड ा धोनिहार फेकनाकें नहि देखलनि। फेकनाकें ओ बच्चहि सँ देखैत रहथि तें खोज कएलनि तँ सभ नोकर सकुचाए लागल। एकटा नोकर दम साधि क' बाजल - ''निकालि देल गेलै, मालिक।''
- ''किए?''
- ''मालिकक कुरतामे एकटा नमड़ी रहि गेल छलै, जे ओ कपडा खीचैत काल चोराए लेलक।''
- ''नै, नै, मालिक!'' दोसर एकटा नोकर कहलकनि।
- ''तखनि किए निकालि देल गेलै?''
कातेमे डा. सिन्हाक पिता छलथिन्ह। ओएह कहए लगलखिन्ह- ''करीब छओ मास पहिने अपन वरदक घरमे एक राति आगि लागि गेल, जे एके बेर बेसम्हार भए गेलै। फेकना दलान पर सुतल रहए। ओ सोझे वरदक घर ढुकि गेल आ सभटा वरदक डोरी खोलि बैलाए देलेकै। मुदा ओकर अभाग देखू जे अपनै लटपटा गेल आ कुट्टीकटा पर खसि पडल। ओकर पयरमे बेसी कटि गेलै। किछ दिन दवाइ कराओल गेलै मुदा ठीक नै भेलै आ एकटा पयर नीक जकाँ बेकार भए गेलै। तखनि ओहि लुल्ह-नाङरके राखि क' की होएते? ओकरा ओना निकालि दितियैक तँ गामक लोक गुटबंदी करितए, तें चोरिक आरोप लगा क' मारि-पीटि बैलाए देलियै।
डा. सिन्हा सिहरि उठलाह। मोन केनादन करए लगलनि तँ एकटा नोकरकें संग कए टहलै ले' बाध दिस निकलि गेलाह। रस्तहिमे फेकन भेटि गेलनि। गदहा पर कपडा लादि ओहो पुरनी पोखरि जा रहल छल। भेंट भेलनि, गप्प भेलनि, तँ डा० सिन्हा इनाम ल' जएबाले' कहि देलखिन। अपने तँ ओ गाममे नै रहै छथि, तें बेसी किछु कहबा सँ पहिने सभसँ विचार क' लिय' चाहैत रहथि।
डा० सिन्हा बाधमे अपन खेत देखलनि, कमलम गाछी देखलनि आ घर घूरि गेलाह। आ दोपहरियामे खा पी क' निश्चिन्त भेलाह। बेरू पहरमे एकटा घटना घटल। सभ सुनलनि जे बथान पर बान्हल चारू वरद बोमिआए रहल अछि। नोकर-चाकरक संग डा० सिन्हा सेहो दलान पर अएलाह तँ दैखैत छथि जे फेकन नादि लग ठाढ़ अछि आ एकटा वरद ओकर कान्ह पर अपन गरदनि देने निष्पन्द अछि। वरदक आँखि मुनाएल छै आ नोर बहि रहल छै। दोसर वरद ओकर पीठ चाटि रहल अछि। बाँकी दुनू सेहो लग अएबाक अथक प्रयास कर रहल अछि।
डा० सिन्हा चोट्टे घूरि घर गेलाह। लैपटॉप खोललनि आ अपन सहयोगी सभके ई-मेल कएल- ''हमर शोध ले' वरदक स्पेसीज उपयोगी नै होएत। अहाँ सभ दोसर कोनो जानवरक खोज करू जकरामे भावना नै रहए।
अहूँ लोकनि जँ जनैत होइ तँ डा० सिन्हाकें सूचित कए दियनि। हुनक ई-मेल आइ०डी० अछि- इनफो एट दी संवेदना डॉट कॉम।

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

नए सपने संजोने की मुहिम

रमण कुमार सिंह की कविताएं आम लोगों की कविताएं नहीं, बल्कि आम लागों के बीच की कविताएं हैं. उन्हीं आम लोगों के बीच की कविताएं जो लाखों-करोड़ों लागों की तरह महानगर आते हैं- ढेर सारे सपने लेकर. लेकिन उन्हीं लोगों की तरह उनके सपने भी महानगर की सड़कों पर खो जाते हैं. फिर सामने आती है अपने गॉंव-घर से अलग होने की टीस. उनकी कविताओं में इस टीस को बखूबी महसूस की जा सकती है. वे अपनी टीस को शब्दों में पिरोने में भी कामयाब होते हैं. लेकिन जैसा कि हर कवि को लगता है कि वे कहीं चूक रहे हैं, या फिर अपनी पीड़ा, अपनी तड़प को शब्दों में बांधने में उन्हें सफलता नहीं मिल रही है, रमणजी को भी ऐसा ही लगता है. शायद कवि की यही बेचैनी कवि को उकसाता है- नए शब्दों, बिंबों व प्रतीकों की खोज करने के लिए. रमणजी इस खोज में लगे रहते हैं लेकिन उन्हें तसल्ली नहीं मिलती. इसीलिए वे कबीर से यह कह कर माफ़ी मांगते हैं कि उलटबांसी तो मेरे समय में भी है लेकिन इसे व्यक्त करने के लिए मेरे पास तुन्हारी तरह शब्द नहीं हैं. यही कारण है कि वे मैथिली कविताओं में ऐसे शब्द व मुहावरे का प्रयोग करते हैं, जिसका जोड़ हिंदी में मिलना कठिन होता है. वे उन रचनाकारों में से नहीं हैं जो एक भाषा में कमजोर व एक भाषा में बेहतर रचना करते हैं. उनकी हिंदी और मैथिली की कविताओं में वही टीस, वही बेचैनी मिलती है. चाहे वह ओल्डहोम में वृद्ध हो या चौराहे पर खड़ी लड़की हो, या फिर अनुज से संवाद. उनकी कविताओं में गौर करने लायक बात यह भी है कि वे पाठकों को सिर्फ निराशा की ओर नहीं धकेलते, बल्कि तमाम निराशाओं के बाद उन्हें आशा के नव-पल्लव से भी परिचय करते हैं. क्योंकि कोसी- कमला वालों के सपने हर बाढ़ में बह जाते हैं और हर बाढ़ के बाद शुरू होती है फिर से नए सपने संजोने की मुहिम. बहते हुए सपनों के बीच पेड़ की फुनगी पर बचा रहता है नव-पल्लव.
                                                                                                              -सच्चिदानंद

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

रमण कुमार सिंह की मैथिली कविताएं

नीम अँधेरे में जुगनुओं की तरह चमकती कविताएँ 

रमण कुमार सिंह की कविताएँ छोटी छोटी बातों से बहुत ही बड़ी बातें कहती है.  तिनकों 
को जोड़कर सुख का घर बनाने का हठयोग कोसी-कमला वालों से ज्यादा कौन जान सकता है. रमण कुमार सिंह मेरे विचार से किसी चीज को सैलानी की तरह नहीं देखते हैं. यही उनकी कविता की ताकत है और यही कविताई को बचाए रखेगी. इनकी कविता पर फिर कभी... अभी उनकी कविता ही आपके सामने है.  -कुमार राहुल 




ओल्डहोम में वृद्ध
जबकि सेवानिवृत्ति के बाद लोग रह सकते हैं
आराम से अपने परिजनों के साथ
ओल्डहोम में बैठा एक वृद्ध
सोचता है दुनिया की घृणा व प्रेम
यह कोठरी एक बोधिवृक्ष
जहाँ वह पता है जिन्दगी की निस्सारता का ज्ञान
थके-हारे सपने
नाच रहे हैं उसकी बुढी आँखों में
इस शहर में जीने वाले लोग
नहीं समझ सकते उसकी अनिन्द्रा का कारण
आज-कल उसका मन कागज की नाव की तरह
डूबता-उतराता रहता है
एक क्षीणकाय धार में
सुख-दुःख खोया-पाया कुचक्र-यंत्रणा, नाच-गान
हर बातें याद आती रहती हैं उसे
जिन्दगी के छोटे-छोटे खण्डों में
कितने रूप कितने रंगों में
और वह बहते लगता है
वह सोचता है प्रेम
जो नहीं कर सका जिन्दगी भर
वह सोचता है कर्तव्य
जिसे पूरा करने के बाद भी मिली  उसे उपेक्षा
वह सोचता है संगी-साथी, परिवार, संबंध-बंध
जिससे मिला उसे सिर्फ दुःख
उसे होती है ग्लानि
जिन्दगी में की गयी किसी गलती पर
कभी-कभार पूछता है वह अपने से ही
आखिर क्या है यह जिन्दगी?
हरदम आग की धार को पर करना है
या बचपन का पतंग लूटने का है कौशल
या की है यह गीत-
जो कभी चढ़ नहीं सका कभी लय पर
या की नाटक है
जिसका पटाक्षेप होता है दुखांत
क्या है यह जिन्दगी?
किशोर वयस का प्रेम या क़ि प्रौढ़ वयस की कर्तव्यपरायणता
या क़ि दीनता के रेगिस्तान में तपती रेत पर चलना
या क़ि समृधि के रंगीन कुहासे में खोना है जिन्दगी ?
सारी स्मृति गडमड हो रही है
और वह हरदम करता रहता है
अपने ही संतती के तीर से घायल भीष्म की तरह
आजकल वह मृत्यु  की प्रतीक्षा
लेकिन मृत्यु भी है उससे दूर
बहुत दूर....अपने परिजनों की तरह.
अनुज से संवाद
हे हमारे अनुज
हो सके तो क्षमा कर देना मुझे
मैं नहीं सौंप पाया तुम लोगों को रागपुरित पृथ्वी समूची
जो मिली थी मुझे बचपन में
मैं देना चाहता था घर
तुम्हें मिलेगा बाजार
मैं लिखना चाहता था प्रेम
तुम्हें पढने को मिलेगा व्यापर
यह सिर्फ तुम्हारी गलती नहीं होगी
हम लोग घोर अंघेरे समय में जी रहें हैं
हमारे पूर्वज पहले रहते थे जंगल में
एक प्रकाश देख उन्होंने पकड़ी विकास की राह
प्रकाश के पीछे-पीछे भटकने लगा मैं भी
प्रकाश बन गया मृग-मरीचिका और
भटकना बन गया हमारी बीमारी
कभी इसके पास तो कभी उसके पास
भटक रहा हूँ मैं
अपने पास स्थिर कहाँ राह पता हूँ
वह निश्चय ही बेहतर दिन रहे होंगे
जब अपने लोगों के पास स्थिर रहा होऊंगा मैं
आज भटकते-भटकते पहुंच गया हूँ
विश्व ग्राम तलक
यह हमारे पूर्वजों का
वसुधैव कुटुम्बकम का गाँव तो नहीं ही है
ग्लोवल दुनिया का विश्व ग्राम है यह
जहाँ सब चीज है बिकाऊ
बचपन में सूनी थी बाबा की पराती
बाबा के पास थे अलग-अलग समय के लिए
अलग-अलग राग
बाबा कर लेते थे समय से संवाद
बाबा समय को पहचानने के गुर जानते थे
मैं नहीं सीख पाया बाबा से
समय को पहचानने का गुर
और नहीं बचा कर रख पाया बाबा का राग
इस अंघकार समय में अनाथ हो गया हूँ
पथरा गए हैं हमारे शब्द
गूंगा हो गया है हमारा इतिहास
स्मृति को भुलाकर उलझ गया हूँ
भौतिकता की 'अन्हरजाली' में
मैं बढ़ता जा रहा हूँ बुढ़ापा की ओर
तुम लोग हो रहे हो बच्चा से किशोर,
किशोर से युवा
बचा होगा तुम लोगों में कल से संवाद करने का साहस
बुढ़ाई हुई शताब्दी के अवसान के समय में
एक लगभल असफल पीढी का
प्रेम और शुभकामना है तुम्हारे साथ
अपने से चुन लो अपनी दिशा, अपना भविष्य
ऐसे समय में तुम लोग ही गा सकते हो
नए स्वर, नए छंद, नए ताल में
नई सुबह की पराती...
गुमशुदगी रिपोर्ट
राजधानी की इस रोशनी से
नहायी हुई सड़क पर
एक दिन मेरी बेटी की हंसी
पता नहीं कहाँ गुम हो गयी
मेरे गॉंव के रामधन काका के बुढ़ापे की लाठी
इस महानगर की भीड़ में
खो गया महामिहम जी
और अपना हाल क्या कहें 
पता नहीं रत-दिन के इस भागम-भाग और
हड़बड़ी में वे सपने भी खो गए
हे महामिहम जी,
सुनते हैं कि राजधानी की पुलिस
माहिर होती है
मेरे जैसे अदना लोगों की तो बात भी नहीं सुनती है
आप ही ढूंढ निकालिए न
मेरी बेटी की हंसी
रामधन काका के बुढ़ापे की लाठी
और मेरे वे सपने, जिसे लेकर मैं आया था
राजधानी में....
फिर से हरा-भरा
एक वयस्क एकाकीपन से त्रस्त
मैं और आप साथ हुए थे
दुःख, उम्मीद और उत्सव की उस रात
एक दूसरे से अपना-अपना दुःख बांटते हुए
पता नहीं कब कर लिया था निर्णय
कि जब कभी भी कर लेंगे सुख अर्जित
दोनों मिलकर भोगेंगे
सच कहता हूँ मीता
तुम्हारी आँखों में चमकती हुई आकांक्षा देख
मौसम अनायास ही लगने लगा था सुहाना
मेरी सांसों में व्यग्रता और
शब्द में होने लगा था उत्साह का संचार
अहर्निश आप का ही संगीत गूंजता था ह्रदय में
अपने सपने के एकांत संसार में
रचा था एक सुख-संसार
लेकिन यातना व प्रेम की इस कथा का
अंत हुआ था नाउम्मीद के कुहासे में
हर चीजें तोता मैना के किस्से की तरह
व्यर्थ हुआ मीता
किसी कथा का अंत कितना दुखद होता है
सो पता है आपको मीता?
इसके बाद कुछ बांकी नहीं रहता है
निपट रिक्तता और बेमतलब जीवन
अपना मन ही समझा रहा अपने मन को
जीवन को फिर से सुखमय बनाने का जुगाड़
नाउम्मेदी के इस दौर में
कहीं से फूटते हैं उम्मीद के नव-पल्लव
और जिन्दगी होने लगती है
फिर से हरी-भरी.
उलटबांसी
कृषि प्रधान इस देश में
किसान कर रहे हैं आत्महत्या
जनकल्याणकारी राज्य की संसद में
रोज बनते हैं कानून लेकिन
बनिया और विदेशी सौदागरों के लिए
स्कूल-कॉलेजों में चरित्र निर्माण की नहीं
दूसरे की जेब से अपनी जेब में
पैसे झटकने की दी जाती है शिक्षा
न्यालय में अभियुक्त की हैसियत देख कर दिए जाते हैं फैसले
लोकतंत्र का चौथा खम्भा
अपने अस्तित्त्व के के लिए है संघर्षरत
बाबा कबीर!
उलटबांसी आपके ही समय में नहीं
मेरे समय में भी है
लेकिन कहाँ से लाऊं मैं
आप जैसे शब्दों में असर
यह भी एक उलटबांसी है,
माफ़ करना कबीर!
 मैथिली से अनुवाद धर्मेन्द्र झा

रमण कुमार सिंह की हिन्दी कविताएं

बच्चों से हमारी चाहतें
हम अपने बच्चों में बच्चा नहीं
भविष्य का सफल व्यक्ति ढूंढ़ते हैं
हम चाहते हैं कि उनके शिशु-मस्तिष्क
कंप्यूटर जैसे हों तेज़
और हौसले हीलियम भरे गुब्बारे की तरह
इंसानियत के तमाम गुण हों हमारे बच्चे में
और बड़ों का सम्मान तो भगवान की तरह करे वो
हम अपने बच्चे के औसत या फिसड्डी होने की
तो कभी सोच ही नहीं सकते
औसत या फिसड्डी बच्चे हों भी हमारे तो
उसे अपना कहने में भी शरमाते हैं
हम चाहते हैं कि हम जो हासिल न कर पाये
वो सब कुछ हासिल करें हमारे बच्चे
हम चाहते हैं कि वो
कल्पना चावला की तरह प्रसृद्धि पाएं
मगर उनका हश्र कल्पना चावला जैसा न हो
हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे
सुंदर हों और सुशील भी
उनके दिलों में प्यार हो और उमंगें बेशुमार
मगर हमारी पसंद के बिना वो किसी को न करे पसंद
वे बस हमारी उम्मीदों का माइल स्टोन बनें
हम ये भी चाहते हैं कि
लोग उन्हें मेरे परिचय से नहीं
बल्कि उनके परिचय से हमें जानें
अपने बच्चों को लेकर हमारे मन में
अनंत चाहतें होती हैं
हम चाहते हैं वो ये करे
वो वह करे
सब कुछ करे
लेकिन
अपने मन की न करे...
चौराहे पर लड़की
अपनी चिर-पुरातन पोपली आत्मा और
दादी-नानी द्वारा मिली नसीहतों का कवच उतार
चौराहे पर थी खड़ी लड़की अकेली
उसके आंचल में कुछ फूल थे सूखे हुए
मन में थीं कुछ दबी भावनाएं
कंठ में कोई गीत था उसके
जिसे वह रह-रह कर
गुनगुना उठती थी
आसपास खड़े लोगों में उसको लेकर
कुछ फुसफुसाहटें थीं कुछ जुगुप्सा
- किसकी बेटी है... किसकी पत्नी...
- चीज़ बड़ी ऊंची लगती है...
- हां मगरूर भी...
- कर रही होगी किसी का इंतजार
लोगों के मन में बहुत कुछ है
इस लड़की के विषय में
सिवा किसी सम्मानजनक भाव के
इन सबसे बेपरवाह लड़की
अपने में ही मगन
दृढ़ता से खड़ी है
अकेली
चौराहे पर
माफ़ करना मिता
मैं तुम्हें सोते हुए छोड़कर जा रहा हूं
हालांकि सोते हुओं को बिना जगाये
छोड़कर निकल जाना ठीक नहीं है
मगर माफ़ करना मिता
मैं तुम्हें सोते हुए छोड़कर जा रहा हूं
इतिहास में लांछित है गौतम बुद्ध
यशोधरा और राहुल को
सोते हुए छोड़कर जाने के लिए
हालांकि मैं बुद्ध नहीं हूं
हरेक को निकलना पड़ता है अकेले ही
अकेले ही भोगना होता है भटकाव
जब तुम जगोगी तो तुम्हें यह दुनिया
कुछ बदली-बदली नजर आएगी
आज का समय वही नहीं होगा
जो कल का था
और न ही आज का दुख
कल का दुख होगा
न आज का चुंबन वह होगा
और न आज के आलिंगन में वो खिंचाव
जो कल था
सब कुछ एकदम नया-नया होगा
एक नई शुरुआत के लिए आमंत्रण देता हुआ

संपर्क-द्वारा-पंकज बिष्ट
98, कला विहार, मयूर विहार फेज-वन एक्स.
दिल्ली - 110091
फोन नंबर - 9873890173

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

कविताएँ जो बोलती हैं 6

साभार रवि कुमार

कविताएँ जो बोलती हैं 5

कविताएँ जो बोलती हैं 4

कविताएँ जो बोलती हैं 3

कविताएँ जो बोलती हैं 2

कविताएँ जो बोलती हैं 1

कविताएँ जो बोलती हैं

सावन में रूठा बदरा, धरती की फटी बिवाई

देश के कई हिस्सों में बाढ़ आयी है लेकिन झारखंड सूखा की चपेट में है. गोड्डा जिले में जमीन में दरारें पड़ गयी है. किसानों के सामने विकट स्थिति है. निरभ किशोर और अविनाश कुमार की रिपोर्ट.
आधा सावन बीत जाने के बाद भी रूठे बादलों को किसानों पर जहां नहीं आया. सावन में जेठ सा नजारा. जमीन में दरारें पर गयी हैं, मानों धरती मैया की बिवाई फट गयी हो. आसमान में बादल उमरते - घुमरते हैं. गरजते भी. लेकिन बरसते नहीं. अगर बरसते भी हैं तो दो-चार बूँद ही. इन दो-चार बूंदों से क्या होगा. गर्म तवे पर जैसे दो-चार बूँदें छन् से रह जाती हैं, उसी तरह बारिश की दो-चार बूँदें जमीन पर छन्न से रह जाती हैं. न जाने कौन सी हवा बहती है, जो सिर्फ बादल को नहीं,  बल्कि किसानों की उम्मीदों को भी उड़ा ले जाती हैं.
आषाढ़ की दो-चार दिनों की बारिश के बाद रूठा बदरा लाख कोशिशों के बाद भी मानने का नाम नहीं ले रहा. आषाढ़ में थोड़ी सी रोपनी ही पाई थी, वे विचड़े भी अब सूख गए हैं. अब तक १०-१५ प्रतिशत रोपनी ही पाई है. गोड्डा के किसान बताते हैं कि ०९ में भी ऐसा समय नहीं आया था. बिचड़े को बचने के लिए किसान कड़ी मशक्कत कर रहे हैं लेकिन इन बिचडों को बचाने के लिए पैसे चाहिए. लगातार दो वर्षों से सुखाड़ का दंश झेल रहे ये किसान आखिर रूपये कहाँ से लायेंगे. अगस्त में जिले में महज तीन एम-एम बारिश ही हुई है.
विभाग ने की झूठी रिपोर्ट
गोड्डा जिले के किसान कृषि विभाग की रिपोर्ट से आक्रोशित हैं. जुलाई में विभाग ने २५० एम.एम बारिश दिखाया है. यह रिपोर्ट डीसी के माध्यम से स्टेट को भेजी गयी है. जबकि किसानों का कहना है क़ि गत माह महज १५० एम.एम बारिश ही हो पाई है. बारिश का आलम यह है क़ि कुएं का जलस्तर एक फुट भी ऊपर नहीं आ पाया है. वहीँ विभाग ने घनरोपनी का प्रतिशत ३० बताया गया है जबकि १५ फीसदी रोपनी भी ठीक से नहीं हो पाई है.

अब इश्क झंडू बाम हो गया

अब इश्क इबादत नही
अब इश्क कमीना भी नही
अब इश्क झंडू बाम हो गया है.
सिनेमा  सपना हो या सिनेमा बनाने वाले सपनों के सौदागर लेकिन कहीं न कहीं सिनेमा य्थाथर से मुठभेर ज्रूर करता है. शाहरुख़  खान इश्क को कमीना कहते हैं तो मलैका व् सलमान के लिए अब इश्क झंडू बाम हो गया है. इसका मतलब साफ है. आजकल के फटाफट संस्किरित में  इश्क झंडू बाम हो गया है.
कवि निलय उपाध्य को भूल जाना परेगा अपनी ही लिखी यह पंक्ति
कोई बचाये रोम कोई मदीना 
कोई बचाये चाँदी कोई सोना 
मै निपट अकेला 
कैसे बचाऊ तुमहारा प्रेम पत्र 
कुमार  राहुल

रविवार, 8 अगस्त 2010

सागर किनारे

सच्चिदानंद
सागर किनारे
चीटियाँ बनाती हैं अपना घरौंदा
सागर में उठती-गिरती रहती हैं लहरें
आता है तूफ़ान/ बिखर जाते हैं घरौंदे
बिखर जाता है चीटियों का झुण्ड
बिखरी हुई चीटियाँ/ फिर से बनाती हैं अपना झुण्ड
फिर से बनाती हैं अपना घरौंदा
उनके जीवन में होता है सिर्फ निर्माण-सिर्फ निर्माण!
क्योंकि एक निर्माण के पूरा होते ही
ख़त्म हो जाता उस निर्माण का नामोनिशान
क्योंकि सागर में उठती -गिरती रहती हैं लहरें
उठता-गिरता रहता है ज्वार-भाटा
आता ही रहता है तूफ़ान
उजर्ता -बसता रहता है घरौंदा
घरौंदे के निर्माण में लगा रहता है आशिक मन
आशिक मन सागर किनारे रोता है बार-बार
सागर को यह पता नहीं कि उसके खारा जल में
उन आंसू का भी योग है.

शनिवार, 7 अगस्त 2010

जागे कोइ इश्क दा मारा

जागे कोइ इश्क दा  मारा
या जागे बीमार...
देवघर. एक ऐसा शहर जो  रात भर जगता है.
इसे नीद भी आती है
तो कुछ पल के िलए.
जब सारी दुिनया सोती रहती है
देवघर पराती गा क्र जग की तंद्रा तोरता है.
कुमार  राहुल

भक्ति; लटक के...

बुधवार, 4 अगस्त 2010

आओ बाढ़ देखें

शर्म शर्म है झारखंड

एक आदमी रोटी बेलता है. 
एक आदमी रोटी खाता है.
 एक तीसरा भी आदमी है जो न रोटी बेलता है और न रोटी खाता है 
वह केबल रोिटयों से खेलता है. 
मैं पूछता हूँ 
वह तीसरा आदमी कौन है
मेरे देश की संसद मौन है.

धूिमल की इस किवता को समझना हो तो झारखंड  आएं. यहाँ िवधायक िवकते  हैं. संताल् परगना दूसरा कालाहांडी है.
कुमार राहुल 

साहिबगंज में बाढ़

प्रेमचंद जयन्ती

premchand jayanti