शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

नए सपने संजोने की मुहिम

रमण कुमार सिंह की कविताएं आम लोगों की कविताएं नहीं, बल्कि आम लागों के बीच की कविताएं हैं. उन्हीं आम लोगों के बीच की कविताएं जो लाखों-करोड़ों लागों की तरह महानगर आते हैं- ढेर सारे सपने लेकर. लेकिन उन्हीं लोगों की तरह उनके सपने भी महानगर की सड़कों पर खो जाते हैं. फिर सामने आती है अपने गॉंव-घर से अलग होने की टीस. उनकी कविताओं में इस टीस को बखूबी महसूस की जा सकती है. वे अपनी टीस को शब्दों में पिरोने में भी कामयाब होते हैं. लेकिन जैसा कि हर कवि को लगता है कि वे कहीं चूक रहे हैं, या फिर अपनी पीड़ा, अपनी तड़प को शब्दों में बांधने में उन्हें सफलता नहीं मिल रही है, रमणजी को भी ऐसा ही लगता है. शायद कवि की यही बेचैनी कवि को उकसाता है- नए शब्दों, बिंबों व प्रतीकों की खोज करने के लिए. रमणजी इस खोज में लगे रहते हैं लेकिन उन्हें तसल्ली नहीं मिलती. इसीलिए वे कबीर से यह कह कर माफ़ी मांगते हैं कि उलटबांसी तो मेरे समय में भी है लेकिन इसे व्यक्त करने के लिए मेरे पास तुन्हारी तरह शब्द नहीं हैं. यही कारण है कि वे मैथिली कविताओं में ऐसे शब्द व मुहावरे का प्रयोग करते हैं, जिसका जोड़ हिंदी में मिलना कठिन होता है. वे उन रचनाकारों में से नहीं हैं जो एक भाषा में कमजोर व एक भाषा में बेहतर रचना करते हैं. उनकी हिंदी और मैथिली की कविताओं में वही टीस, वही बेचैनी मिलती है. चाहे वह ओल्डहोम में वृद्ध हो या चौराहे पर खड़ी लड़की हो, या फिर अनुज से संवाद. उनकी कविताओं में गौर करने लायक बात यह भी है कि वे पाठकों को सिर्फ निराशा की ओर नहीं धकेलते, बल्कि तमाम निराशाओं के बाद उन्हें आशा के नव-पल्लव से भी परिचय करते हैं. क्योंकि कोसी- कमला वालों के सपने हर बाढ़ में बह जाते हैं और हर बाढ़ के बाद शुरू होती है फिर से नए सपने संजोने की मुहिम. बहते हुए सपनों के बीच पेड़ की फुनगी पर बचा रहता है नव-पल्लव.
                                                                                                              -सच्चिदानंद

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