गुरुवार, 12 अगस्त 2010

रमण कुमार सिंह की मैथिली कविताएं

नीम अँधेरे में जुगनुओं की तरह चमकती कविताएँ 

रमण कुमार सिंह की कविताएँ छोटी छोटी बातों से बहुत ही बड़ी बातें कहती है.  तिनकों 
को जोड़कर सुख का घर बनाने का हठयोग कोसी-कमला वालों से ज्यादा कौन जान सकता है. रमण कुमार सिंह मेरे विचार से किसी चीज को सैलानी की तरह नहीं देखते हैं. यही उनकी कविता की ताकत है और यही कविताई को बचाए रखेगी. इनकी कविता पर फिर कभी... अभी उनकी कविता ही आपके सामने है.  -कुमार राहुल 




ओल्डहोम में वृद्ध
जबकि सेवानिवृत्ति के बाद लोग रह सकते हैं
आराम से अपने परिजनों के साथ
ओल्डहोम में बैठा एक वृद्ध
सोचता है दुनिया की घृणा व प्रेम
यह कोठरी एक बोधिवृक्ष
जहाँ वह पता है जिन्दगी की निस्सारता का ज्ञान
थके-हारे सपने
नाच रहे हैं उसकी बुढी आँखों में
इस शहर में जीने वाले लोग
नहीं समझ सकते उसकी अनिन्द्रा का कारण
आज-कल उसका मन कागज की नाव की तरह
डूबता-उतराता रहता है
एक क्षीणकाय धार में
सुख-दुःख खोया-पाया कुचक्र-यंत्रणा, नाच-गान
हर बातें याद आती रहती हैं उसे
जिन्दगी के छोटे-छोटे खण्डों में
कितने रूप कितने रंगों में
और वह बहते लगता है
वह सोचता है प्रेम
जो नहीं कर सका जिन्दगी भर
वह सोचता है कर्तव्य
जिसे पूरा करने के बाद भी मिली  उसे उपेक्षा
वह सोचता है संगी-साथी, परिवार, संबंध-बंध
जिससे मिला उसे सिर्फ दुःख
उसे होती है ग्लानि
जिन्दगी में की गयी किसी गलती पर
कभी-कभार पूछता है वह अपने से ही
आखिर क्या है यह जिन्दगी?
हरदम आग की धार को पर करना है
या बचपन का पतंग लूटने का है कौशल
या की है यह गीत-
जो कभी चढ़ नहीं सका कभी लय पर
या की नाटक है
जिसका पटाक्षेप होता है दुखांत
क्या है यह जिन्दगी?
किशोर वयस का प्रेम या क़ि प्रौढ़ वयस की कर्तव्यपरायणता
या क़ि दीनता के रेगिस्तान में तपती रेत पर चलना
या क़ि समृधि के रंगीन कुहासे में खोना है जिन्दगी ?
सारी स्मृति गडमड हो रही है
और वह हरदम करता रहता है
अपने ही संतती के तीर से घायल भीष्म की तरह
आजकल वह मृत्यु  की प्रतीक्षा
लेकिन मृत्यु भी है उससे दूर
बहुत दूर....अपने परिजनों की तरह.
अनुज से संवाद
हे हमारे अनुज
हो सके तो क्षमा कर देना मुझे
मैं नहीं सौंप पाया तुम लोगों को रागपुरित पृथ्वी समूची
जो मिली थी मुझे बचपन में
मैं देना चाहता था घर
तुम्हें मिलेगा बाजार
मैं लिखना चाहता था प्रेम
तुम्हें पढने को मिलेगा व्यापर
यह सिर्फ तुम्हारी गलती नहीं होगी
हम लोग घोर अंघेरे समय में जी रहें हैं
हमारे पूर्वज पहले रहते थे जंगल में
एक प्रकाश देख उन्होंने पकड़ी विकास की राह
प्रकाश के पीछे-पीछे भटकने लगा मैं भी
प्रकाश बन गया मृग-मरीचिका और
भटकना बन गया हमारी बीमारी
कभी इसके पास तो कभी उसके पास
भटक रहा हूँ मैं
अपने पास स्थिर कहाँ राह पता हूँ
वह निश्चय ही बेहतर दिन रहे होंगे
जब अपने लोगों के पास स्थिर रहा होऊंगा मैं
आज भटकते-भटकते पहुंच गया हूँ
विश्व ग्राम तलक
यह हमारे पूर्वजों का
वसुधैव कुटुम्बकम का गाँव तो नहीं ही है
ग्लोवल दुनिया का विश्व ग्राम है यह
जहाँ सब चीज है बिकाऊ
बचपन में सूनी थी बाबा की पराती
बाबा के पास थे अलग-अलग समय के लिए
अलग-अलग राग
बाबा कर लेते थे समय से संवाद
बाबा समय को पहचानने के गुर जानते थे
मैं नहीं सीख पाया बाबा से
समय को पहचानने का गुर
और नहीं बचा कर रख पाया बाबा का राग
इस अंघकार समय में अनाथ हो गया हूँ
पथरा गए हैं हमारे शब्द
गूंगा हो गया है हमारा इतिहास
स्मृति को भुलाकर उलझ गया हूँ
भौतिकता की 'अन्हरजाली' में
मैं बढ़ता जा रहा हूँ बुढ़ापा की ओर
तुम लोग हो रहे हो बच्चा से किशोर,
किशोर से युवा
बचा होगा तुम लोगों में कल से संवाद करने का साहस
बुढ़ाई हुई शताब्दी के अवसान के समय में
एक लगभल असफल पीढी का
प्रेम और शुभकामना है तुम्हारे साथ
अपने से चुन लो अपनी दिशा, अपना भविष्य
ऐसे समय में तुम लोग ही गा सकते हो
नए स्वर, नए छंद, नए ताल में
नई सुबह की पराती...
गुमशुदगी रिपोर्ट
राजधानी की इस रोशनी से
नहायी हुई सड़क पर
एक दिन मेरी बेटी की हंसी
पता नहीं कहाँ गुम हो गयी
मेरे गॉंव के रामधन काका के बुढ़ापे की लाठी
इस महानगर की भीड़ में
खो गया महामिहम जी
और अपना हाल क्या कहें 
पता नहीं रत-दिन के इस भागम-भाग और
हड़बड़ी में वे सपने भी खो गए
हे महामिहम जी,
सुनते हैं कि राजधानी की पुलिस
माहिर होती है
मेरे जैसे अदना लोगों की तो बात भी नहीं सुनती है
आप ही ढूंढ निकालिए न
मेरी बेटी की हंसी
रामधन काका के बुढ़ापे की लाठी
और मेरे वे सपने, जिसे लेकर मैं आया था
राजधानी में....
फिर से हरा-भरा
एक वयस्क एकाकीपन से त्रस्त
मैं और आप साथ हुए थे
दुःख, उम्मीद और उत्सव की उस रात
एक दूसरे से अपना-अपना दुःख बांटते हुए
पता नहीं कब कर लिया था निर्णय
कि जब कभी भी कर लेंगे सुख अर्जित
दोनों मिलकर भोगेंगे
सच कहता हूँ मीता
तुम्हारी आँखों में चमकती हुई आकांक्षा देख
मौसम अनायास ही लगने लगा था सुहाना
मेरी सांसों में व्यग्रता और
शब्द में होने लगा था उत्साह का संचार
अहर्निश आप का ही संगीत गूंजता था ह्रदय में
अपने सपने के एकांत संसार में
रचा था एक सुख-संसार
लेकिन यातना व प्रेम की इस कथा का
अंत हुआ था नाउम्मीद के कुहासे में
हर चीजें तोता मैना के किस्से की तरह
व्यर्थ हुआ मीता
किसी कथा का अंत कितना दुखद होता है
सो पता है आपको मीता?
इसके बाद कुछ बांकी नहीं रहता है
निपट रिक्तता और बेमतलब जीवन
अपना मन ही समझा रहा अपने मन को
जीवन को फिर से सुखमय बनाने का जुगाड़
नाउम्मेदी के इस दौर में
कहीं से फूटते हैं उम्मीद के नव-पल्लव
और जिन्दगी होने लगती है
फिर से हरी-भरी.
उलटबांसी
कृषि प्रधान इस देश में
किसान कर रहे हैं आत्महत्या
जनकल्याणकारी राज्य की संसद में
रोज बनते हैं कानून लेकिन
बनिया और विदेशी सौदागरों के लिए
स्कूल-कॉलेजों में चरित्र निर्माण की नहीं
दूसरे की जेब से अपनी जेब में
पैसे झटकने की दी जाती है शिक्षा
न्यालय में अभियुक्त की हैसियत देख कर दिए जाते हैं फैसले
लोकतंत्र का चौथा खम्भा
अपने अस्तित्त्व के के लिए है संघर्षरत
बाबा कबीर!
उलटबांसी आपके ही समय में नहीं
मेरे समय में भी है
लेकिन कहाँ से लाऊं मैं
आप जैसे शब्दों में असर
यह भी एक उलटबांसी है,
माफ़ करना कबीर!
 मैथिली से अनुवाद धर्मेन्द्र झा

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